आलोक शुक्ला/ प्रियांशु गुप्ता. केंद्र सरकार की बहुचर्चित वाणिज्यिक खनन हेतु संपन्न हुई कोल ब्लाॅक नीलामी प्रक्रिया पर सवाल उठने लगे है. कोयला खनन की प्रक्रिया पर नजर रखने वालों ने जैसी आशंका जताई थी, अंततः वही हुआ. देश के कोयला मंत्री प्रल्हाद जोशी ने दावा किया है कि वाणिज्यिक खनन के लिए कोयला खानों की नीलामी में जबरदस्त प्रतिस्पर्धा देखने को मिली है. जोशी का कहना है कि जिन 19 ब्लॉकों की नीलामी की गई है, इनसे सालाना 7,000 करोड़ रुपये का राजस्व मिल सकता है. उनका कहना है कि इन खदानों के प्रचालन में आने के बाद इनसे 69,000 से अधिक रोजगार के अवसर पैदा होंगे.

हकीकत तो यह है कि कोरोनाकाल में गैर – प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया होने के कारण सभी खदानों पर बहुत कम बोली लगाई गई. इसका सीधा नुकसान राज्य सरकारों को होगा, क्योंकि बोली रकम में कटौती से राजस्व में कमी आना तय है.

38 में 19 खदानों के लिए ही लगी बोली

केंद्र सरकार ने दावा किया था कि कोयला खदानों की नीलामी आत्मनिर्भर भारत और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की और एक क्रांतिकारी कदम है, परंतु खदानों की नीलामी के नतीजों से यह स्पष्ट हो गया है कि यह दावा गलत है। इससे अर्थव्यवस्था को फायदा पहुंचने के बजाय दीर्घकालिन नुकसान उठाना पड़ेगा। जिन 38 खदानों के लिए बोली आमंत्रित की गई, उनमें से केवल आधी यानी 19 खदानों की ही नीलामी की जा सकी.

गौरतलब है कि इस बार नियमों को लचीला बनाने हेतु न्यूनतम बोलीदारों की संख्या मात्र 2 रखी गई थी जो पिछली नीलामी प्रक्रिया से भी कम है. ऐसे में आधी खदानों के लिए न्यूनतम बोलीदार न मिल पाना पूरी प्रक्रिया पर ही, विशेष रूप से कोरोनाकाल के इस समय पर एक सवालिया निशान है. यदि नीलामी की बोली दरों पर नजर डालें तो साफ है कि खदानों को बेहद कम कीमत पर दे दिया गया है. अधिकांश खदानों के लिए बोली अनुसार 10 से 30 प्रतिशत आय का हिस्सा ही राज्य सरकारों को दिया जाएगा, जो कि पिछले नीलामी की दर तथा कोयले के वास्तविक मूल्य से बहुत कम है.

उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के कोल ब्लाॅक गरे पेलमा  IV/1 को ही लें. इस खदान को जिंदल ने 350 रुपए प्रति टन (25 % Revenue Share ) से भी कम दर पर हासिल किया है. 2015 में जब पहले चरण की नीलामी हुई थी तब गरे पेलमा क्षेत्र की खदानों के लिए 1000 से 3000 रुपए प्रति टन की बोलियां लगाई गई थीं. 2015 में बालको ने गरे पेलमा  IV/1 खदान के लिए 1585 रुपए प्रति टन की दर से बोली लगाई थी. बाद में इस खदान का आबंटन रद्द कर दिया गया।

नीलामी की विफलता का कारण

नीलामी प्रक्रिया की विफलताओं के अनेक कारण हैं. पहला तो यह कि देश में इतने पैमाने पर कोयले जरूरत ही नहीं है. सीईए, कोल इंडिया लिमिटेड, विजन 2030 तथा अन्य विश्लेषकों ने कई अवसरों पर देश के सामने इस तथ्य को रखा है. गौरतलब है कि 2015 के बाद आबंटित 72 में से सिर्फ 20 खदानें ही चालू हो र्पाइं. जबकि 50 खदानों से अभी तक खनन शुरू नहीं हो सका है. यदि खदानें शुरू हुईं तो लगभग 320 मिलियन टन का उत्पादन बढ़ जाएगा जो कि भारत की वर्तमान कोयला जरूरतों से ज्यादा होगा.

नीलामी की विफलता का दूसरा बड़ा कारण यह है कि कोयला क्षेत्र की अधिकांश निजी कंपनियां दिवालिया हो चुकी हैं या आर्थिक संकट से जूझ रही हैं. वहीं विदेशी कंपनियों ने भी कोरोनाकाल के समय कमर्शियल माइनिंग के तहत हुई कोल ब्लाॅक की नीलामी में कोई रुचि नहीं दिखाई. ऐसे में बोलीदारों का अभाव रहा. केवल चार खदानों को ही 5 से अधिक बोलियां मिली जबकि कुल 8 खदानों के लिए 3 अधिक बोलियां लगाई गई.

तीसरा कारण यह कि नीलामी के लिए रखे ज्यादातर खदानों के पास पर्यावरण एवं वन स्वीकृतियां नहीं थी. जिससे बोली लगाने वालों को अधिक जोखिम उठाना पड़ रहा था.

नीलामी की विफलता का एक कारण यह भी था कि सरकार ने MDO के जरिए चुनिंदा कंपनियों के लिए दरवाजे का रास्ता खोला था. इसमें जोखिम कम और मुनाफा अधिक था। एक कारण यह भी हुआ कि कोविड के इस संकट में जब विश्व की अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुजर रही है, कारपोरेट अपने लिए पैकेज की मांग कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में नीलामी के सफल होने की उम्मीद वैसे भी कम ही थी. इसी कारण झारखंड समेत कई राज्यों ने इसे स्थगित करने की पहले ही मांग की थी.

किसको फायदा किसको नुकसान

जब पिछली बार कोयला खदानों की नीलामी हुई, तब कहा गया था कि राज्य सरकारों को फायदा होगा और लगभग 3.35 लाख करोड़ बोली दर आधारित राजस्व की प्राप्ति होगी. आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार 2020 मार्च तक केवल 8.36 हजार करोड़ ही मिल पाए क्योंकि कई खदानें चालू ही नहीं हुई.

दूसरी ओर आबंटन प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के दावे भी सही साबित नहीं हुए. क्योंकि 90 प्रतिशत से अधिक खनिज संपदा का आबंटन MDO के माध्यम से चुनिंदा कारपोरेट घरानों को दे दिए गए. इस नीलामी में भी ऐसा ही हुआ, जहां कुछ निजी कंपनियों ने केंद्र सरकार की मदद से कोरोना आपदा को अवसर में बदलकर बहुमूल्य खदानों को कम दर पर ले लिया.

गरे पेलमा  IV/1 में कम बोली मिलने का सीधा नुकसान छत्तीसगढ़ राज्य सरकार को होगा. क्योंकि इन खदानों से अब बहुत कम राजस्व प्राप्ति होगी. वहीं दूसरी और सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव खदान क्षेत्रों के पर्यावरण तथा आदिवासी समुदाय को विस्थापन पर पड़ेगा.

छत्तीसगढ़ की इस खदान की बात करें तो ग्राम सभाएं अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग कर लगातार खनन का विरोध करती आईं हैं. पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में जन विरोध को दरकिनार कर की गई नीलामी प्रक्रिया कई कानूनी सवालों के घेरे में भी है.

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