कलकत्ता हाईकोर्ट ने (13 अगस्त) को एक मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए यह कहा कि यदि जिम्मेदारी से कार्य कर रहे पत्रकार समाचार का प्रसार नहीं कर पाएंगे तो लोकतंत्र का मौलिक चरित्र खो जायेगा। न्यायमूर्ति संजीब बनर्जी एवं न्यायमूर्ति अनिरुद्ध रॉय की पीठ ने आगे यह भी कहा कि, “समान रूप से, पत्रकारों के लिए अपने कार्य के प्रति ईमानदार होना और एक बात रखने के लिए तथ्यों पर अधिक भरोसा करना महत्वपूर्ण है।”
क्या था अदालत के समक्ष मामला?
अदालत के समक्ष 3 याचिकाकर्ता थे जो सीआरपीसी की धारा 439 के तहत जमानत के लिए प्रार्थना कर रहे थे। दरअसल, उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 384/506/420/406/467/468/469/471/472/473/474/120B के साथ ‘द प्रेस रजिस्ट्रेशन ऑफ़ बुक्स एक्ट, 1867’ की धारा 14/15 के अलावा ‘रजिस्ट्रेशन ऑफ़ न्यूज़ पेपर (केंद्रीय) नियम, 1956’ की धारा 12 के तहत मामला दर्ज किया गया था। अदालत ने यह देखा कि प्रथम याचिकाकर्ता ने एक तरह के पत्रकार होने का दावा किया, दूसरा याचिकाकर्ता, फोटो-पत्रकार होने का दावा करता है और तीसरी याचिकाकर्ता, पहले याचिकाकर्ता की पत्नी हैं।
याचिकाकर्ताओं का दावा यह था कि उनके द्वारा प्रकाशित समाचार के मद्देनजर, जो कथित रूप से सत्ता में मौजूद लोगों को पसंद नहीं आया, याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कई मामले दायर किए गए हैं और प्रथम याचिकाकर्ता को लगभग 45 दिनों की हिरासत में रखा गया है। राज्य की ओर से यह दलील दी गयी कि एक शिकायत दर्ज की गयी थी जहाँ यह दावा किया गया है कि मौजूदा याचिकाकर्ता और उनके सहयोगी, अपने क्रेडेंशियल्स को पत्रकार के रूप में ब्रांड करके, पैसे की उगाही के धंधे में लिप्त हैं।
हालांकि, अदालत ने इस बात पर गौर किया कि राज्य की ओर से याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप के समर्थन में कोई भी सामग्री नहीं दिखाई गयी, और अदालत के समक्ष प्रस्तुत किये गए अभिलेखों से कम से कम कोई आरोप स्पष्ट नहीं था।
अदालत का अवलोकन
अदालत ने यह देखा कि, “शायद असंतोष/मतभेद अप्राप्य (unpalatable) हो सकता है, लेकिन असंतोष और देखने का अन्य बिंदु/नजरिया, एक लोकतांत्रिक प्रणाली की पहचान है और केवल इसलिए कि एक विपरीत राय असहज है, इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता है कि इस तरह की असंतुष्ट आवाजों को दबाया जाना चाहिए।” अदालत ने इस बात पर गौर किया कि याचिकाकर्ताओं की ओर से प्रस्तुत किया गया है कि उन्हें कई मामलों में केवल इसलिए फंसाया गया है क्योंकि उन्होंने प्रशासन के कई पहलुओं पर अपनी विपरीत राय व्यक्त की है। हालांकि, अदालत ने यह देखा कि इस सम्बन्ध में एक सर्वव्यापी आदेश पारित नहीं किया जा सकता है, परन्तु अदालत ने इस बात को अवश्य रेखांकित किया कि यह देखा जाना चाहिए कि जांच एजेंसी द्वारा, भविष्य में मौजूदा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ आने वाली शिकायतों के संबंध में, मनमाने तरीके से उन्हें हिरासत में लेने से पहले उचित देखभाल और सावधानी बरती गयी हो।
अदालत ने मुख्य रूप से कहा कि, “अन्वेषण एजेंसियों का, जितना देखभाल का एक कर्तव्य बड़े पैमाने पर समाज के लिए और शिकायतकर्ता की शिकायत का निवारण करने के लिए है, उतना ही उन लोगों के प्रति भी देखभाल का एक कर्तव्य है, जिनके खिलाफ शिकायत की जाती है। अन्वेषण करने वाली एजेंसी को वास्तविक शिकायतों और फैशनेबल शिकायतों के बीच अंतर करना होता है।”
अंत में, अदालत ने यह कहा कि इन याचिकाकर्ताओं के खिलाफ उपलब्ध सामग्री के आधार पर, उन्हें हिरासत में रखने का कोई औचित्य नहीं है। तदनुसार, याचिकाकर्ताओं को हुगली में उपयुक्त न्यायालय की संतुष्टि के साथ 10,000 / – (केवल दस हजार रुपये) की सुरक्षा प्रदान करने एवं समान राशि के प्रत्येक और व्यक्तिगत रिहाई बांड पर जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि मामले में अन्वेषण पूरा होने तक याचिकाकर्ता, अन्वेषण अधिकारी के साथ सहयोग करेंगे। अन्वेषण को एक उचित समय के भीतर पूरा करने का निर्देश भी अदालत की ओर से दिया गया।
गौरतलब है कि कलकत्ता हाईकोर्ट ने हाल ही में एक पत्रकार को अग्रिम जमानत का लाभ देते हुए यह कहा था कि एक प्रेस रिपोर्टर से यह अपेक्षा की जाती है कि वह किसी भी गैरकानूनी गतिविधियों के बारे में जनता को ईमानदारी से बताए और उसके जरिये प्रशासन को अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने में मदद मिल सकती है। न्यायमूर्ति बिबेक चौधरी एवं न्यायमूर्ति सौमन सेन की पीठ ने यह टिप्पणी उस मामले में की थी जहांं अग्रिम जमानत के आवेदनकर्ता-रिपोर्टर ने ऑनलाइन आधिकारिक पोर्टल पर एक समाचार लेख प्रकाशित किया था, जिसमें यह कहा गया है कि लॉकडाउन के दौरान रेत के कुछ अवैध खनन हुए थे।