By…शशांक शर्मा
शुक्रवार को महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में अपने गृह राज्य मध्यप्रदेश लौट रहे मजदूरों पर मालगाड़ी के चल जाने से 16 मजदूरों की मृत्यु हो गई। इस तरह की यह पहली घटना नहीं है। कोरोना संकट के चलते लॉकडाउन लागू होने के बाद अनेक स्थानों पर ट्रेन अथवा सड़क दुर्घटनाओं में पैदल अपने गृह राज्य या गांव जाने वाले मजदूरों की मृत्यु हो चुकी है। सवाल यह है कि जब किसी व्यक्ति के एक राज्य से दूसरे राज्य पर प्रतिबंध लगा दिए गए हैं तब किस प्रकार इतनी बड़ी संख्या मजदूर पैदल यात्रा कर रहे हैं? इस तरह के दुर्घटनाओं के दोषी कौन है?
सालों-साल यही सुनते रहे कि भारत एक गरीब देश है, दुनिया के लोगों के लिए भी भारत की ग़रीबी हमेशा आकर्षण का केन्द्र रही। भारत के गरीब और गरीबी को दिखाने वाली फिल्में, दस बीघा जमीन से लेकर स्लमडॉग मिलेनियम तक विदेशों में सराही गई। यही गरीब देश 1991 के बाद की बदली वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों में दुनिया की आंखों का तारा हो गया क्योंकि ये लोग उपभोक्ता की श्रेणी में आ गए। गरीब और गरीबी पिछले सत्तर वर्षों से राजनीतिक नारा के अलावा कुछ नहीं रहा। भले ही आंकड़े इन सच्चाइयों पर पर्दा डालने की लाख कोशिश करे, कितनी सरकारें आई और गई लेकिन गरीब और गरीबी की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं है।
अभी कोरोना संकट के समय गरीब श्रमिकों की चिंताएं कुछ लोगों के मन में हिलोरे मार रही हैं, क्या ये लोग सामान्य परिस्थितियो में कभी जाकर उन गरीबों की आवश्यकताओं के बारे में सुध ली है? लॉकडॉउन के कारण बड़ी संख्या में एक राज्य के मजदूर दूसरे राज्यों में फंस गए हैं। अपना राज्य छोड़कर अकुशल श्रमिक दूसरे राज्य जा रहे हैं तो क्या यह राज्य सरकारों की असफलता नहीं है? क्या स्वतंत्रता के बाद हमारी आर्थिक नीतियों को साल दर साल गरीबी को पाल पोसकर गरीब बनाए रखा, क्यों कोई राज्य अपने नागरिकों को रोजगार नहीं दे पा रहा है? गांव में रहने वाले क्यों अपना घर छोड़कर पलायन करने मजबूर हैं? कौन देगा इन सवालों के जवाब और कौन इन विषमताओं को दूर करेगा?
पलायन किए मजदूरों के मूल राज्यों को इस बात के लिए शर्म नहीं आनी चाहिए कि अपने नागरिकों को रोजगार मुहैया नहीं करा पा रहे हैं। चूंकि करोना वायरस जिस तरह दुनिया भर में फैल रहा है और जानलेवा साबित हो रहा है। इसलिए राज्यों में फंसे श्रमिकों को आने जाने की अनुमति नहीं दी जा रही है। ऐसी स्थिति हर राज्य में है। मजदूर जिन राज्यों में हैं वहां उनके रहने और खाने की व्यवस्था क्यों नहीं हो पाई कि अपने परिवार को भुखे सैकड़ों किमी पैदल चलाकर अपने घर पहुंचने को व्यग्र हैं? क्या यह राज्यों की असफलता नहीं है?
कोरोना संकट के समय मजदूरों को भ्रमित करने और सरकार पर अमीर हितैषी होने का आरोप लगातार लगाए जा रहे हैं। एक नारा दिया गया था कि दोष पासपोर्टधारियों का और सजा राशन कार्डधारियों को। इस तरह संकट के समय समाज में अमीरी गरीबी को लेकर दरार डालने की कोशिश क्यों की जा रही है।
यह जानते हुए भी कि पूरा देश राज्यों में फंसे मजदूरों के खाने पीने के व्यवस्था करने में अपनी भूमिका निभा रहा है। राज्य सरकार या सामाजिक संगठन यहां तक कि व्यक्तिगत स्तर पर लोग अपने आसपास के गरीबों के दो वक्त की रोटी मुहैया कराने की कोशिश में लगे है। हालिया कुछ लोग रेलगाड़ी द्वारा मजदूरों को वापस लाने की व्यवस्था पर सवाल खड़े कर रहे हैं, कुछ मजदूरों की वापसी को विदेशों में फंसे भारतीयों को वापस लाने के निर्णय से जोड़ रहे हैं।
इससे प्रवासी मजदूरों के की घर वापसी क्या लेना-देना? बार-बार विदेशों में रहने वाले प्रवासी-अप्रवासी भारतीयों को वापस लाने के फैसले पर ऊंगली उठाना क्या अमानवीय नहीं है, क्या जि़ंदगी अमीर और गरीब की अलग है? अपना पैसा देकर वायुयान से वापस लौटे हैं, वे भी भारतीय अर्थव्यवस्था में अपनी भूमिका निभाते हैं और भारतीय हैं, इंसान भी। केवल गरीबों की बात कर क्या हित साधना चाहते हैं।
आज के हालात किसी से छिपे नहीं है, शहरों से गांवों की ओर लौट रहे श्रमिकों को वापस शहर लौटने में समय लगेगा, ऐसी स्थिति में गांव में उनके रोजगार की क्या व्यवस्था बनेगी? राज्य सरकार में चुने हुए प्रतिनिधियों की अपनी कोई स्वतंत्र सोच नहीं है, केवल सरकार के भरोसे किसी चमत्कार की उम्मीद में बैठे हैं। मंत्रियों को तो वही सुझता है जो नौकरशाह बताते हैं और नौकरशाह कभी गांव जाकर वस्तुस्थिति को समझे ही नहीं इसलिए किसी के पास गांवों की निर्धनता और बदहाली का कोई समाधान नहीं है। सवाल है फिर व्यवस्था सुधरे कैसे? आज समाज को फिर एकजूट होकर राजनीति व सत्ता से परे जमीन पर उतरने की आवश्यकता है।
बुद्धिजीवियों का काम केवल भ्रम फैलाना रह गया है, जनप्रतिनिधियों को वोट, सरकार को पैसा और नौकरशाहों को केवल अपनी सत्ता की समझ है। गरीबी से इन तीनों वर्गों के स्वार्थ सिद्ध होते हैं, गरीब वोट बैंक हैं, सरकारों को गरीबी दूर करने पैसा मिलता है और नौकरशाह की सत्ता भी इन्हीं गरीबों पर चलती है, इसलिए गरीबी दूर करने इनसे कोई उम्मीद करना बेमानी है। गांवों में जाकर समाज और देश का पुनर्निर्माण करने का बीड़ा नागरिकों को उठाना पडेगा। इस संकट काल में समाज ने जो परिपक्वता दिखाई है उससे एक उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं, लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी के पूर्व निदेशक हैं)