ऑनलाइन कक्षाओं के कारण बच्चों को हो रहीं मानसिक और शारीरिक समस्याएं बताती हैं कि स्कूल बंद होना सभी छात्रों और उनके परिवारों पर भारी पड़ा है. लेकिन इसने आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर छात्रों को सबसे ज्यादा प्रभावित हैं.

ऑनलाइन कक्षाएं नया मानदंड हैं, लेकिन ग्रामीण और शहरी भारत दोनों में ही अधिकांश गरीब तबका इसका पूरा लाभ पाने के लिए साधन सम्पन्न नहीं है. इस साल फरवरी में संचार, मानव संसाधन विकास और इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी राज्य मंत्री संजय धोत्रे ने लोकसभा में कहा था कि भारत में 27,721 गांवों में मोबाइल कनेक्शन नहीं है.

यूडीआईएसई (शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली) की 2017-18 की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में केवल 28.7 प्रतिशत स्कूलों और शहरी भारत में 41.9 प्रतिशत स्कूलों के पास ही उपयोग में लाने योग्य कंप्यूटर सुविधाएं थीं. वहीं, भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) की रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर 2019 तक केवल 27.57 प्रतिशत ग्रामीण भारत में इंटरनेट सुविधा थी. राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (एनएसओ) की तरफ से शिक्षा पर 75वें दौर के सर्वेक्षण में सामने आए आंकड़े तो और भी निराशाजनक हैं, जिसके मुताबिक ग्रामीण भारत में इंटरनेट सुविधा वाले परिवारों का प्रतिशत केवल 14.9 प्रतिशत है और मात्र 4.4 प्रतिशत (स्मार्टफोन को छोड़कर) लोगों के पास कंप्यूटर हैं.

ऑनलाइन शिक्षा तब तक जारी रहने की पूरी संभावना है जब तक कोरोनोवायरस महामारी से कोई राहत नहीं मिलती. यही नहीं महामारी के बाद भी ग्रामीण गरीबों को इंटरनेट के जरिये बिना किसी बाधा शैक्षणिक वीडियो, पॉडकास्ट और सक्षम शिक्षकों से पढ़ने की सुविधा मुहैया कराने वाला बुनियादी ढांचा तैयार करना गरीबों की रोजगार क्षमता बढ़ाने के लिहाज से एक बेहतर निवेश है.

यह निवेश दोनों छोर- यानी कि शिक्षकों के साथ-साथ छात्र भी- के लिए ‘एंड यूजर डिवाइसेस’ और दोनों को जोड़ने वाली इंटरनेट कनेक्टिविटी के प्रावधान के साथ किया जाना है.

ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ना

2012 में यूपीए सरकार दूरसंचार विभाग के ‘यूनिवर्सल सर्विस ऑब्लीगेशन (यूएसओ) फंड’ से वित्त पोषित ‘हर हाथ में फोन’ नाम की एक योजना पर काम कर रही थी, जिसका एक प्रमुख दायित्व हर किसी को सस्ती दर पर फोन सेवाएं उपलब्ध कराना था. मौजूदा समय में ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा अपनी सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) के तहत चिह्नित सभी परिवारों के लिए इसी तर्ज पर कुछ व्यवस्था की जा सकती है. स्मार्टफोन न रखने वाले परिवारों की प्रभावी तरह से पहचान के लिए एसईसीसी के डाटा को टेलीकॉम कंपनियों और आधार की मदद से मिलान करके देखा जा सकता है. टेलीकॉम कंपनियां हर सिम के एक्टीवेशन के साथ आईएमईआई नंबर और फोन के मॉडल का डाटा रखती हैं. इसके अलावा, जिन स्कूलों में कंप्यूटर नहीं हैं वहां इंटरनेट सुविधा के इस्तेमाल के लिए कंप्यूटर/टैबलेट और ग्राहक आधार उपकरण (सीपीई जैसे फाइबर/बूस्टर, राउटर, आदि) उपलब्ध कराए जा सकते हैं.

लाभार्थियों का दोहराव रोकने की कवायद के बाद चिह्नित नंबरों के आधार पर बांटे जाने के लिए उपकरणों की खरीद की जा सकती है. एक व्यापक अभियान के तहत केंद्र और राज्य सरकारें शहरी क्षेत्रों में पुराने उपकरणों को संग्रह केंद्रों में दान करने का आह्वान भी कर सकती है, दान में मिले इन उपकरणों को ठीकठाक करके काम करने लायक स्थिति में लाने के लिए टेस्टिंग और रिपेयर सेंटर स्थापित किए जा सकते हैं, और फिर उन्हें जरूरतमंद छात्रों और शिक्षकों के बीच बांटा जा सकता है. इससे ई-कचरे के प्रबंधन के साथ-साथ सरकार पर वित्तीय बोझ भी काफी घट जाएगा.

ब्रॉडबैंड सुविधा की बात करें तो भारत फिक्स्ड लाइन ब्रॉडबैंड की पहुंच के मामले में अभी 134वें स्थान पर है. मोबाइल टावर के विपरीत फाइबर केबल को कनेक्टिविटी के लिए संबंधित क्षेत्र तक पहुंचाना होता है. इसलिए कोविड महामारी के मौजूदा दौर में हमें हर गांव के अंतिम छोर पर स्थित घर तक कनेक्टिविटी सुविधा के लिए मोबाइल टॉवर का विकल्प अपनाना होगा. टेलीकॉम सर्विस प्रोवाइडर्स को खराब या बिना मोबाइल कनेक्टिविटी वाले गांवों को जोड़ने के लिए अधिक बेस टावर खड़े करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जबकि ट्रांसमिशन बढ़ाने के लिए रिपीटर्स स्थापित किए जाने चाहिए. भारत भर में फैले रेलटेल कॉरपोरेशन के नेशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क के मद्देनजर ये संभावनाएं भी तलाशी जानी चाहिए कि दूरदराज के इलाकों में कहां पर सबसे कम समय में कनेक्टिविटी प्रदान की जा सकती है.

उपलब्ध संसाधनों का उपयोग

मोबाइल टावर/फाइबर केबल के जरिये इंटरनेट कनेक्टिविटी सुविधा एक बार गांव तक पहुंच जाने पर कोविड सुरक्षा संबंधी सभी मानदंडों का पालन करते हुए स्कूलों, पंचायत भवन, छात्रों के लिए कम्युनिटी हॉल आदि में कक्षाएं चलाई जा सकती हैं. शिक्षक इन परिसरों से अपनी इंटरैक्टिव ऑनलाइन कक्षाएं चला सकते हैं और छात्रों के लिए वीडियो और पॉडकास्ट भी तैयार कर सकते हैं.

ऑनलाइन कक्षाएं चलाने में इस्तेमाल होने वाले सॉफ्टवेयर एप्लिकेशन भी इस तरह बनाने होंगे कि मीटिंग के लिए कॉल की अवधि और प्रतिभागियों की संख्या जैसी कोई बाध्यता नहीं हो. ग्रामीण भारत में अपर प्राइमरी से लेकर सीनियर सेकेंडरी स्तर तक के 70 प्रतिशत से अधिक छात्र सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में जाते हैं. इन स्कूलों में सीधे जिला स्तर पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पैक खरीदे जा सकते हैं.

ग्रामीण भारत का स्कूलों में उपस्थिति अनुपात शहरी भारत के सभी स्तरों पर पीछे है, लेकिन यह अधिक महत्वपूर्ण तब हो जाता जब माध्यमिक विद्यालय स्तर पर 39.8 प्रतिशत छात्रों की तुलना में उच्च प्राथमिक स्तर पर शहरी भारत में 52.8 प्रतिशत छात्र क्लास में उपस्थित हो रहे हैं. इन छात्रों को बिना निगरानी ऑनलाइन कक्षा में शामिल कराने के लिए कुछ नियमित घंटे तक पढ़ाई के बाद निशुल्क ऑनलाइन गेम/लाइब्रेरी/फिल्म आदि के तौर पर प्रोत्साहन की आवश्यकता होगी, जिसे एडुटेक कंपनियों की तरफ से उपलब्ध कराया जा सकता है जिनके पंजीकरण और राजस्व में लॉकडाउन के बाद खासी वृद्धि हुई है.

 

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