पहले फेक न्यूज का धंधा शुरू हुआ. कुछ दिन सफलतापूर्वक चलता रहा. लेकिन फिर आल्टन्यूज जैसी वेबसाइट आ गईं. मुख्यधारा के मीडिया से भी कई वेबसाइट फैक्ट चेक करने लगीं. धंधा मंदा हो गया, तो अब फेकन्यूज फैक्ट्री ने सही खबरों और सही सूचनाओं के फैक्ट चेक का धंधा शुरू कर दिया है.
जैसे खबरें आईं कि 40 ट्रेनें रास्ता भटक गईं. अब यूपी जाने वाली ट्रेन ओडिशा पहुंच गई, बिहार जाने वाली ट्रेन बेंगलुरु या गाजियाबाद पहुंच गई तो इसमें रेलवे या सरकार कौन सा महान सच पेश कर देंगे? फिर भी, मीडिया में छपी सभी खबरों में रेलवे का पक्ष लिया गया, जिसमें रेलवे ने कहा कि जानबूझ कर रूट बदला गया.
अब कोई महात्मा ये बताए कि रूट बदलने का ये कौन सा फॉर्मूला है कि किसी ट्रेन को सीधा दूसरे राज्य में भेज दिया जाए? उत्तर आने वाली ट्रेन को दक्षिण भेज दिया जाए? रूट बदलकर ट्रेनों को 600 या 800 किलोमीटर अतिरिक्त क्यों दौड़ाया जा रहा है? इसमें कौन सा महान सच छुपा है जिसे फैक्ट चेक करके आप सामने ले आएंगे?
लेकिन ट्रेन संबंधी इन खबरों का फैक्ट चेक किया गया. यह कारनामा प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो यानी पीआईबी भी लगातार करता है. पीआईबी ने बताया कि ट्रेन के रास्ता भटकने वाली खबरें झूठी हैं. भटकी नहीं थी, व्यस्तता के कारण रूट बदला गया था.
इसमें पीआई की गलती नहीं है. पीआईबी सरकारी भोंपू है. उसका काम है सरकार का प्रचार प्रसार करना. पीआईबी कभी नहीं पूछेगा कि करीब 7000 ट्रेनें ढाई करोड़ लोगों को रोज ढोती रही हैं, तब ऐसा कभी नहीं हुआ तो फिर मात्र 200 ट्रेनों के संचालन में रूट पर व्यस्तता कहां से आई? गोरखपुर आने वाली ट्रेन ओडिशा या गाजियाबाद कैसे पहुंच गई?
अब जहां से भी भूख से मौतों की खबर आ रही है, पीआईबी समेत पूरी सरकार यह बता रही है कि वे जो मर गए हैं, वे तो पहले से बीमार थे.
असली सवाल यही है. बीमार तो बहुत लोग हैं. रेलवे या पीआईबी या हर मंत्रालय, हर विभाग में आधे तो बीमार होंगे. किसी को शुगर होगा, किसी को ब्लडप्रेशर. तो क्या सारे बीमार लोगों का मरना तय है? यह कौन सा ध्रुव सत्य है कि जो मर गया, वह बीमार था?
असल सवाल तो यही है कि जो बीमार था, वह आपकी नरकयात्रा नहीं झेल पाया और मर गया.
भूख से हुई मौत को बीमारी से हुई मौत बताने वाले अधिकारी को एक हफ्ता बिना दाना पानी के पैदल 1200 किलोमीटर चलाया जाए. गारंटी है वह भी अल्ला मियां का प्यारा हो जाएगा. उसकी भी रिपोर्ट कुछ इसी तरह आएगी कि हार्ट फेल होने से मरा, सांस रुक जाने से मरा, दम घुट जाने से मरा, आंत सूख जाने से मरा है आदि इत्यादि…
मेरी अब तक की जिंदगी में मैंने कभी नहीं सुना कि भूख से हुई किसी मौत को सरकार ने स्वीकार किया हो. पिछली सब सरकारें यही करती थीं. विदर्भ और कालाहांडी में यह खेल खूब खेला गया है. भूख से मौत हो जाए तो दारोगा सबसे पहले पहुंचकर बताता है कि मरने वाले को गंभीर बीमारी थी.
तो इसलिए हे सरकार बहादुर! यह खेल पुराना है. कुछ नया खोजो.
- कृष्णकांत