बड़े भूकंपीय विस्फोट भारत के ऊपर मॉनसून-जो देश की कृषि की कुंजी है और इस प्रकार एक बिलियन लोगों को भोजन उपलब्ध कराता है-की भविष्यवाणी करने में सहायता कर सकते हैं। एक भारत-जर्मन शोध टीम के निष्कर्ष के अनुसार, अनियमित होने के कारण, भूकंपीय विस्फोट पूर्वानुमेयता में सुधार लाते हैं। जो विरोधाभासी प्रतीत होता है, वह वास्तव में दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व एशिया के बड़े भागों के ऊपर मानसून तथा विस्फोट के बाद अल नीनो प्रभाव के बीच एक मजबूत समतुल्यता के कारण है। मौसम संबंधी अवलोकनों, जलवायु के रिकार्डों, कंप्यूटर मॉडल सिमुलेशन तथा पृथ्वी के इतिहास के पिछली सहस्त्राबदियों से पेड़ के छल्लों, कोरल, गुफा जमाओं एवं आइस कोर जैसे पुरा जलवायु शिलालेख आंकड़ों की समतुल्यता से शोधकर्ताओं ने पाया कि मॉनसून का प्राकृतिक जलवायु पविर्तनशीलता के सबसे मजबूत तरीके, अल नीनो के साथ वर्णनात्मकता भारतीय उपमहाद्वीप में मौसमी बारिश की शक्ति के बारे में पूर्वानुमान लगाना आसान बना देता है।
पुणे स्थित भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान के आर कृष्णन ने कहा, ‘ छोटे कण और गैसें जिन्हें एक बड़ा विस्फोट वायु में डालता है, वे जलवायु में प्रवेश कर जाती हैं और वहां कई वर्षों तक बनी रहती हैं। वायुमंडलीय क्षेत्र में भूकंपीय पदार्थ कुछ सीमा तक सूर्य की रोशनी को धरती की सतह तक पहुंचने में बाधित कर देते हैं और निम्न सौर दबाव अगले वर्ष अल नीनो प्रभाव की संभाव्यता को बढ़ा देता है। उन्होंने कहा कि, ‘ऐसा इसलिए है क्योंकि कम धूप का अर्थ है कम गरमी और इस प्रकार उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्ध के बीच तापमान अंतरों में बदलाव आ जाता है जो वातावरण के बड़े पैमाने पर वायु परिसंचरण तथा वर्षण गतिशीलता को प्रभावित करता है। उन्नत डाटा विश्लेषण से अब पता चला है कि बड़े भूकंपीय विस्फोटों से प्रशांत क्षेत्र के ऊपर और भारतीय मॉनसून सूखे पर गर्म अल नीनो प्रभाव की अनुरूपता -या, इसके बदले, प्रशांत क्षेत्र के ऊपर ठंडा ला नीना और भारतीय मॉनसून आधिक्य को बढ़ावा मिलने की अधिक संभावना है।’
भारतीय मॉनसून वर्षा की वर्ष दर वर्ष पविर्तनशीलता अल नीनो/दक्षिणी स्पंदन पर बहुत अधिक निर्भर करता है-जो उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में एक जलवायु घटना है जिसके स्पेनिश नाम का अर्थ ‘बच्चा’ है जो शिशु ईसा मसीह को उद्धृत करता है क्योंकि दक्षिण अमेरिका के निकट जल क्रिसमस के निकट बहुत अधिक गर्म रहता है। पोट्सडैम जलवायु प्रभाव अनुसंधान संस्थान (पीआईके) के नौर्बर्ट मारवान ने कहा, ‘उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर और भारतीय मॉनसून के बीच समतुल्यता में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा है जिसके एक कारण में मानव निर्मित्त ग्लेाबल वार्मिंग है, जो मॉनसून के सटीक पूर्वानुमान को बदतर बना रहा है। वास्तव में, यह उस परिकल्पना की पुष्टि करता है जिसे 15 वर्ष पहले हमारे सहयोगियों मरॉन एवं कुर्थ्स ने आगे बढ़ाया था। अब ये निष्कर्ष मॉनसून के पूर्वानुमान के लिए एक नवीन, अतिरिक्त पथ का संकेत देते हैं जो भारत में कृषि संबंधी नियोजन के लिए महत्वपूर्ण हैं। ‘पीआईके के पिछले अनुसंधान से पहले ही बिना भूकंपीय विस्फोटों के वर्षों तक मानसून के पूर्वानुमान में उल्लेखनीय रूप से सुधार आ चुका है।’
ये निष्कर्ष जलवायु मॉडलों के आगे के विकास में भी सहायता कर सकते हैं और वास्तव में भू-अभियांत्रिकी प्रयोगों के क्षेत्रीय निहितार्थों के आकलन में भी मदद कर सकते हैं। मानव निर्मित्त ग्रीनहाउस गैसों से ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए, कुछ वैज्ञानिक सौर विकिरण प्रबंधन की कल्पना करते हैं-जो मूल रूप से उच्च वातावरण में धूल डालने के जरिये धूप के एक हिससे को बाधित कर सूरज की किरणों से पृथ्वी को गर्म होने से बचाना है, उसी प्रकार जैसे किसी भूकंपीय विस्फोट की प्राकृतिक घटना से होता है। बहरहाल, कृत्रिम रूप से सूरज की किरणों को बाधित करना वातावरण में कई प्रकार की क्रियाओं में खतरनाक तरीके से हस्तक्षेप करना हो सकता है। इसलिए, जारी तंत्र को समझना महत्वपूर्ण है।
ये निष्कर्ष ‘फिंगरप्रिंट ऑफ वोलकैनिक फोर्सिंग ऑन द एन्सो-इंडियन मॉनसून कपलिंग’ शीर्षक के तहत साइंस एडवांसेज में प्रकाशित किए गए हैं। लेख यहां पढ़ें। (लेख: एम सिंह, आर कृष्णन, बी गोस्वामी, ए डी चैधरी, पी स्वप्ना, आर वेल्लोर, ए जी प्रजीश, एन संदीप, सी वेंकटरमणन, आर वी डोनर, एन मारवान, जे कुथ्र्स (2020) फिंगरप्रिंट ऑफ वोलकैनिक फोर्सिंग आन द एन्सो-इंडियन मॉनसून कपलिंग। साइंस एडवांसेज)।