प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दूसरे कार्यकाल का पहला साल संपन्न हुआ। भारतीय जनता पार्टी की कोरोना काल में भी इस इस अवसर को प्रचारित और इसे समारोह के रूप में मनाने की विशिष्ट योजना है। देश के गृह मंत्री अमित शाह ने इसे कांग्रेस के ‘साठ साल पर मोदी के छह साल भारी’ कहकर पीठ थपथपाई है। मोदी सरकार के छह सालों का सफर देखें तो वह ‘अच्छे दिन के नारे से शुरू होकर आत्मनिर्भर बनने के नारे’ तक पहुँची है। इस सफर में नरेंद्र मोदी की सरकार की कामयाबी और विफलता दोनों का ही शुमार है। मोदी सरकार के दोनों नारे उनकी सरकार के आकलन के सबसे बेहतर पैमाने हो सकते हैं।

अच्छे दिन की बात कहकर उन्होंने देश के करोड़ों ऐसे लोगों के मन में एक आशा जगाई थी कि आने वाला समय उनका है। यह वह वर्ग था जो विकास की दौड़ में पिछड़ा हुआ था या जिसे सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिला। ‘भ्रष्टाचार’ इस नारे को सफल बनाने में एक मूलमंत्र की तरह या यूँ कह लें ‘रामबाण औषधि’ की तरह कारगार साबित हुआ। मनमोहन सिंह की सरकार को जहाँ एक तरफ़ देश के औद्योगिक घराने ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ की अवधारणा पैदा कर घेरने का काम कर रहे थे वहीं दूसरी ओर आये दिन एक से बड़े एक भ्रष्टाचार के प्रकरणों के क़िस्से समाचार माध्यमों की सुर्खियाँ बन रहे थे। कालेधन की पृष्ठभूमि पर अच्छे दिन की ऐसी फ़सल लहलहाई कि देश की जनता ने क़रीब तीन दशक बाद किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत प्रदान कर दिया।

नयी सरकार ने आकर नये नारे ही नहीं गढ़े बल्कि योजनाओं के नाम भी नए सिरे से गढ़ने शुरू कर दिए। स्वच्छ भारत, सबका साथ सबका विकास, स्मार्ट सिटी, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया, आदर्श ग्राम जैसे नारों की एक लम्बी फेहरिस्त है। एक के बाद एक नारे और योजनाएँ क्रमवार घोषित किए जाते रहे लेकिन ‘अच्छे दिन’ का रिपोर्ट कार्ड कभी न तो सरकार की तरफ़ से आया और न ही उसके मीडिया ने इस पर कभी सवाल उठाया। भ्रष्टाचार के हथियार ने ऐसा रूप धरा कि ‘रफ़ाल जहाज़’ खरीद मामले की जाँच के लिए सरकार किसी भी अपनी एजेंसी खड़ी होने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकी। ‘चौकीदार चोर है’ के नारे के जवाब में बीजेपी ने ‘मैं भी चौकीदार’ मुहिम चला दी, लेकिन रफ़ाल डील पर कोई भी आँच नहीं आयी।

‘अच्छे दिन’ वाली सरकार में हर साल में 2 करोड़ लोगों को नौकरियाँ देने की बात कही गयी थी लेकिन पाँच साल में कई करोड़ लोगों की नौकरियाँ और रोज़गार समाप्त हो गए। ‘कड़वी खुराक’ के नाम पर जनता को नोटबंदी जैसे आर्थिक संकट के समक्ष खड़ा कर दिया गया। 

देश का वह वर्ग जिसे अच्छे दिन की आशा थी, अपने पैसे निकालने के लिए ही लाइन में खड़ा होनो को विवश था। जीएसटी जैसे टैक्स को  ‘दूसरी आज़ादी’ का नाम देकर छोटे और मझोले कारोबारियों को चार्टेड एकाउंटेंट के कार्यालयों के चक्कर काटने पर विवश कर दिया। जीडीपी के आँकड़े संभालने में उद्योग, कृषि और सेवा क्षेत्र ने कितनी महारथ दिखाई, इसका आकलन करने में जब देश और दुनिया के विश्लेषक परेशान थे, सरकार ने सरकारी नीतियों के नाम की तरह उसका पैमाना ही बदल डाला।

दुनिया भर की तमाम बड़ी कंपनियाँ और संस्थाएँ सरकार पर आँकड़े छुपाने का आरोप लगाती रहीं लेकिन ‘प्रखर राष्ट्रवाद’ के नए नारे ने सब कुछ ढक दिया।

ऐसे में पुलवामा जैसी वारदात हुई लेकिन सरकार की विफलता पर सवाल उठाना तब तक ‘राष्ट्रद्रोह’ की श्रेणी में स्थापित आरोप बन चुका था। और अच्छे दिन का नारा राष्ट्रवाद की इस आंधी में कब ‘पाकिस्तान’ चला गया किसी को समझ ही नहीं आया।

किसी भी नेता की दूसरी पारी का पहला साल नया जोश दिखाने का साल होता है। संसदीय चुनावों में नरेंद्र मोदी की भारी जीत ने विपक्ष को और कमज़ोर किया और सत्ताधारी पार्टी के लिए ज़िंदगी आसान कर दी। मोदी सरकार अच्छे दिन के नारे को छोड़ राम मंदिर, तीन तलाक़ और जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को ख़त्म करने जैसे कार्यों में जुट गयी। विकास और रोज़गार के नाम पर चुनकर आए नरेंद्र मोदी अपने पहले कार्यकाल में जहाँ अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने और निवेश लाने के लिए देश विदेश की यात्रा कर नेताओं से मिले लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल में वे विदेश नीति से ज़्यादा घरेलू नीति पर ध्यान देने लगे।

नागरिकता क़ानून, एनआरसी

असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, नागरिकता क़ानून में संशोधन और जम्मू और कश्मीर के पुनर्गठन की पहल तथा धारा 370 को ख़त्म कर पूर्व मुख्य मंत्रियों सहित सैकड़ों नेताओं की गिरफ्तारी विवादों में रही।

धार्मिक आधार पर बने नए नागरिकता क़ानून का सबसे अधिक विरोध हुआ और ध्रुवीकरण ऐसा हो गया कि राजधानी दिल्ली भी दशकों बाद दंगों की गवाह बनी। मोदी सरकार 2.0 के पहले साल को यदि तीन हिस्सों में बाँटा जाए, तो पहले हिस्से में नागरिकता क़ानून, कश्मीर का पुनर्गठन तथा दूसरा हिस्सा इनके विरोध में हुए आंदोलन का है। इस सरकार के दूसरे कार्यकाल का तीसरा हिस्सा कोरोना महामारी को रोकने की अप्रत्याशित चुनौती का है।

लॉकडाउन कोरोना को रोकने का सही क़दम था, इस बात को लेकर किसी ने सवाल नहीं उठाये। लेकिन लॉकडाउन कैसे और कब लागू होना चाहिए था अब इस बात को लेकर सवाल खड़े किये जाने लगे हैं।

इस लॉकडाउन ने सरकार की कमज़ोरियों को सामने ला दिया है। देश की सबसे बड़ी पार्टी बना देने वाले नेता सरकार में वह क्षमता नहीं दिखा पाए कि किस तरह लाखों मज़दूरों को लॉकडाउन के दौरान जान की बाज़ी लगाकर पैदल अपने घर जाने से रोका जाए। मोदी 2.0 का दूसरा साल इसी चुनौती के साथ प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के सामने खड़ा होने वाला है। इस साल की शुरुआत नरेंद्र मोदी ने एक भावनात्मक चिट्ठी लिखकर कर दी है। उनकी पार्टी के कार्यकर्ता आने वाले कुछ दिनों में दस करोड़ परिवारों में यह चिट्ठी लेकर पहुँचने वाले हैं ! लेकिन देश के करोड़ों प्रवासी मज़दूरों के सवालों का जवाब कौन देगा जो ज़िंदगी (रोज़ी-रोटी) की तलाश में सपने सजाये महानगरों की तरफ़ गए थे और सैकड़ों मील निःसहाय पैदल अपने घरों की तरफ़ लौटे हैं।

अमित शाह यदि इन छह सालों को कांग्रेस सरकार के साठ साल से ज़्यादा महत्वपूर्ण बताते हैं तो इसका आकलन अलग विषय है। साठ सालों में देश जहाँ शुरू हुआ था और जहाँ 2014 तक पहुँचा था वह किसी से छुपा नहीं है। 

सरकार को बताना होगा कि उसकी कौन सी योजना ‘मील का पत्थर’ साबित हुई है।

 

 

source : Satya Hindi

  • Website Designing