By … रेहाना तबस्सुम

21 दिनों के लॉक डाउन के बाद ये उम्मीद थी कि कोई राहत भरी खबर मिलेगी और जनजीवन सामान्य करने कोई कदम उठाया जाएगा, लेकिन जब प्रधानमंत्री जी ने 19 दिनों के और राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की तो मन थोड़ा विचलित सा हो गया। दरअसल उन गरीब बेसहारा और मजलूम मजदूर वर्ग का ख्याल आया जिन्होंने किसी तरह 21 दिनों को काटा। कोरोना संक्रमण से देश को बचाने की यह कोशिश कारगर होगी इसकी पूरी उम्मीद है, लेकिन उन लाखों प्रवासी मजदूरों का क्या? जिन्हें दो जून की रोटी के अलावा कुछ भी नहीं सूझता। उनकी सारी जद्दोजहद केवल रोटी और रोटी की होती है। उन्हें नहीं पता कोरोना क्या है ? इसके खतरे क्या हैं? उन्हें पता है तो बस पेट की भूख।

ऐसे में जब लॉकडाउन की सारी हदों को दरकिनार कर ये मजदूर सड़क पर निकलते हैं तो हमारे ही समाज का एक तबका उन्हें अपराधी घोषित करने पर तूल जाता है। कुछेक मीडिया इसमें साजिश और साम्प्रदायिकता का एंगल तलाश करने लगती है। उन बेबस लाचार मजबूर लोगों का दर्द और उनकी मजबूरी से जैसे किसी को सरोकार नहीं।

इस वर्ग का कोई धार्मिक चेहरा नहीं, वह है केवल गरीब मजदूर वर्ग। कई किलोमीटर तक पैदल चलते बेबस लाचार मजदूरों के बारे में ये कहा गया कि ये वहीं क्यों नहीं रूक जाते जहां थे। ऐसे में ये सवाल भी उठना लाजमी है कि फिर क्यों विदेशों में रहने वाले भारतीयों को लाने के लिए खास हवाई जहाज भेजे गए? क्यों इन कमजोर तबके के बारे में नहीं सोचा गया? रोजगार खत्म होने के बाद ये क्या करेंगे? कैसे रहेंगे? अपने घरों तक कैसे पहुंचेंगे? मुसीबत में हर इंसान अपने घर की ओर रुख करना चाहता है।

सरकारें कह रही हैं कि हम सबके लिए सारे इंतजाम कर रहे हैं, लेकिन क्या वाकई यह इंतजाम उस तबके तक पहुंच पा रहा है जो वास्तव में इसके हकदार है, योजना बनाना लागू करना क्रियान्वयन होना और वास्तव में हितग्राही तक उसका लाभ मिलना एक लम्बी प्रक्रिया है हमारे देश में, जिसमें गरीब वर्ग पिसता है। बहुतों को सरकारी योजनाओं की जानकारी भी नहीं है। उससे लाभान्वित होना एक अलग विषय है। जैसे हमारे घर काम करने वाली कामगार ने बताया कि उसके पास राशन कार्ड भी नहीं है। वो कैसे काम बंद होने के बाद अब अपनी आजीविका चलाएगी।

सरकार लाख दावे करे कि विपदा की इस घड़ी में वह गरीबों का हित कर रही है। जमीनी हकीकत में गरीब अब भी पीड़ित और उपेक्षित ही है। इस संकट से उबरने के लिए यदि थोड़ी सी दूरदर्शिता अपनाई जाती तो शायद स्थिति इतनी भयावह नहीं होती जो आज है।

गरीब कल्याण कोष से गरीबों का कितना कल्याण कितना होता है ये तो आने वाला समय ही बताएगा। इधर, कारोना महामारी के संकट के बीच भी कॉरपोरेट मीडिया ने जो जहर फैलाया उसके लिए उसे माफ नहीं किया जा सकता।

संकट की इस घड़ी में ये जरूरी है कि सभी धर्म संप्रदाय क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर देश के लिए सोचें। देश के प्रति सामूहिक जवाबदेही सबकी है। अपने आस पास रहने वाले जरूरतमंद लोगों की थोड़ी सी मदद भी उनके जीने का सहारा बन सकती है। थोड़ा सा प्रयास मिल जुल कर स्वहित से ऊपर उठकर करेंगे तो निश्चित ही हम इस आपदा से जल्द ही बाहर आ जाएंगे।

(लेखिका के ये स्वतंत्र विचार हैं। लेखिका दूरदर्शन, रायपुर में समाचार वाचिका तथा आकाशवाणी, बिलासपुर में उद्घोषक है)

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