दरअसल, क्रूड ऑयल की किमत में आई भारी गिरावट का कारण सऊदी अरब और रूस के बीच प्राइस वॉर है। कोरोन वायरस के चलते तेल की मांगों में नरमी के बाद पिछले सप्ताह सऊदी अरब ने इसकी कीमत में कटौती करते हुए 30 साल के न्यूनतम स्तर पर कर दिया। ब्रेंट क्रूड ऑयल की कीमत 6 मार्च को 52 डॉलर प्रति बैरल थी, जो आठ मार्च को घटकर 31.49 डॉलर प्रति बैरल हो गई। हालांकि, 11 मार्च को कीमत रिकवरी देखने को मिली और 36.4 डॉलर पर पहुंच गई।
अब सवाल उठता है कि तेल का सबसे बड़ा निर्यातक देश सऊदी अरब देश अपना ही नुकसान करके क्या हासिल करना चाहता है। दरअसल, सऊदी अरब एक पत्थर से दो शिकार करना चाहता है। कीमतें घटाकर जहां वह अमेरिका की शेल ऑयल इंडस्ट्री को तबाह करना चाहता है, वहीं रूस के तेल उद्योग को भी मुश्किल में डालना चाहता है। अमेरिकी शेल ऑयल की कीमत 50 डॉलर प्रति बैरल से कम करना संभव नहीं है और जाहिर है सस्ता तेल इस इंडस्ट्री को तबाह कर सकता है।
लंबे समय तक बर्दाश्त नहीं कर पाएगा सऊदी अरब
हालांकि, इसमें एक पेच भी है। यह सही है कि सऊदी अरब के लिए तेल के उत्पादन की लागत काफी कम है, लेकिन वहां की सरकार के लिए इसे ऊंची कीमत पर बेचना मजबूरी है क्योंकि उसके खर्चे का बड़ा हिस्सा इसी से आता है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के आकलन के मुताबिक, सऊदी अरब सरकार को अपने खर्चे को पूरा करने के लिए तेल को 83.6 डॉलर प्रति बैरल पर बेचना होगा। इससे साफ है कि सऊदी अरब खुद भी कीमतों में कटौती को लंबे समय तक बर्दाश्त नहीं कर पाएगा, जबकि रूस की स्थिति तुलनात्मक रूप से बेहतर है।
प्राइस वॉर का भारत पर क्या होगा असर
अब लोगों के जेहन में एक सवाल उठ रहा है कि तेल पर इस प्राइस वॉर का भारत पर क्या असर होगा। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश है और अपनी जरूरत का 85% आयात करता है। जाहिर है तेल की कीमत में कोई भी गिरावट उसके आयात बिल को कम करेगा पर क्या भारतीय कंज्यूमरों को इसका फायदा होगा? जवाब है- मामूली फायदा हो सकता है, लेकिन पेट्रोल, डीजल की कीमत में बड़ी कटौती की उम्मीद न करें। केंद्र और राज्य सरकारें इस मौके का इस्तेमाल एक्साइज ड्यूटी और वैट बढ़ाकर अतिरिक्त राजस्व जुटाने के लिए करेंगी।
तेल के खेल में सरकरों ने भर लिए अपने खजाने
पिछली बार साल 2014 से 2016 के बीच कच्चे तेल के दाम तेजी से गिर रहे थे तो सरकार इसका फायदा आम लोगों को देने के बजाय एक्साइज ड्यूटी के रूप में पेट्रोल-डीजल के जरिए ज्यादा से ज्यादा टैक्स वसूल कर अपना खजाना भरने में लगी रही। नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच केंद्र सरकार ने 9 बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाया और केवल एक बार राहत दी। ऐसा करके साल 2014-15 और 2018-19 के बीच केंद्र सरकार ने तेल पर टैक्स के जरिए 10 लाख करोड़ रुपये कमाए। वहीं राज्य सरकारें भी इस बहती गंगा में हाथ धोने से नहीं चूकीं। पेट्रोल-डीजल पर वैट ने उन्हें मालामाल कर दिया। साल 2014-15 में जहां वैट के रूप में 1.3 लाख करोड़ रुपये मिले तो वहीं 2017-18 में यह बढ़कर 1.8 लाख करोड़ हो गया। पिछले हफ्ते कर्नाटक की सरकार ने पेट्रोल पर टैक्स 32% से 35% और डीजल पर 21% से 24% करने की घोषणा कर दी।
32 रुपये लीटर वाला पेट्रोल ऐसे हो जाता है 71 का
दरअसल एक लीटर पेट्रोल की कीमत में करीब आधा पैसा टैक्स के रूप में सरकारों की जेब में जाता है। इसमें केंद्र का 19.98 रुपये प्रति लीटर एक्साइज ड्यूटी के रूप में तो डीजल पर यह कमाई 15.83 रुपये प्रति लीटर है। इसके बाद बारी आती है वैट की , जो विभिन्न राज्यों में 6% से 39% तक है। टैक्स में इजाफा करके सरकार कुछ हद तक वित्तीय हालत को दुरुस्त कर सकती है पर पेट्रोल से अधिक कमाई करने की इच्छा अर्थव्यवस्था को और अधिक नुकसान पहुंचा सकती है। ऐसा अर्थशास्त्रियों का कहना है। और यही कारण है कि सरकार इस बार पेट्रोल और डीजल पर शुल्क में बढ़ोतरी नहीं कर सकती है।
एक मार्च 2020 को दिल्ली में टैक्स सहित एक लीटर पेट्रोल की कीमत
बेस प्राइस | 32.61 |
भाडा़ व अन्य खर्चे | 0.32 |
डीलर का रेट (Excise Duty और VAT को छोड़कर) | 32.93 |
Excise Duty | 19.98 |
डीलर का कमिशन | 3.55 |
VAT (डीलर के कमिशन के साथ) | 15.25 |
आपको मिलता है | 71.71 |
(स्रोत: IOC)
कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर की वृद्धि से 2,936 करोड़ रुपये पड़ता है बोझ
क्रूड ऑयल के दाम में आई गिरावट का फायदा पेट्रोल-डीजल के उपभोक्ताओं को नहीं मिलने की एक और वजह है। दरअसल भारत में तेल की कीमतों में संशोधन 15 दिनों के उत्पादों की औसत कीमत के आधार पर होता है। इसके अलावा, जबकि ब्रेंट क्रूड की कीमत 31 डॉलर के स्तर तक गिरी तो क्रूड की भारतीय बास्केट की कीमत 45 डॉलर प्रति बैरल पर अपेक्षाकृत अधिक है। इस सप्ताह डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में 4% की गिरावट आई है, जिसका अर्थ है कि भारतीय तेल कंपनियां डॉलर खरीदने के लिए अधिक भुगतान करेंगी।
यानी तेल की कीमतों में गिरावट का उन्हें उतना लाभ नहीं मिलेगा, जितना सीधे तौर पर दिख रहा है। दरअसल, कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर की कमी से भारत का आयात बिल 2,936 करोड़ रुपये कम होता है। इसी तरह डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में एक रुपये प्रति डॉलर का बदलाव आने से भारत के आयात बिल पर 2,729 करोड़ रुपये का अंतर पड़ता है। तेल कंपनियों के अधिकारियों का कहना है कि देश के आयात बिल पर अगले वित्त वर्ष की शुरुआत में अप्रैल में फर्क पड़ सकता है, लेकिन वह तेल और मुद्रा बाजार में अनिश्चिता के चलते इसके बारे में कोई सही अनुमान नहीं लगा सकते हैं।