चाय की दुकानों के अलावा काफी हाउस, मोहल्लों और पार्कों में आयोजित होने वाला यह अड्डा संस्कृति बांग्ला समाज में गहराई तक रचा-बसा है. इनमें देश-दुनिया से जुड़े तमाम मुद्दों पर बहसें होती रही हैं. लेकिन अब लॉकडाउन से यह खतरे में है. यही वजह है कि लॉकडाउन के दौरान भी राज्य के विभिन्न इलाकों में चाय की दुकानें खुल रही हैं. यहां लोग एक जून की रोटी के बिना तो जी सकते हैं, अड्डा के बिना नहीं. राज्य की इस सस्कृित पर देश-विदेश में कई शोध ग्रंथ भी छप चुके हैं. शायद इसी वजह से राज्य के विभिन्न इलाकों से लॉकडाउन के उल्लंघन की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं.
बांग्ला के अड्डा शब्द का शाब्दिक हिंदी अनुवाद करना तो मुश्किल है. लेकिन मोटे शब्दों में इसका मतलब उन अनौपचारिक बैठकों से है जहां चाय पीते हुए देश-दुनिया के किसी भी मुद्दे पर विस्तार से बहस की जा सकती है. किसी भी आम बंगाली से पूछ लें, वह इसे अपनी संस्कृति का अटूट हिस्सा बताएगा. आम बंगाली फुर्सत के पलों में किसी भी मुद्दे पर घंटों तक अड्डा मार (बैठक कर) सकते हैं. यह कहना ज्यादा सही होगा कि अड्डा लोगों का एक ऐसा अनौपचारिक जमावड़ा है जहां किसी भी विषय पर चर्चा की जा सकती है.
दिलचस्प बात यह है कि इन अड्डों में उम्र का कोई बंधन नहीं होता. यानी अगर 70 साल का कोई बुजुर्ग ऐसे किसी अड्डे में है तो वहीं 25 साल का युवक भी अपनी बात रख सकता है. बंगालियों में अड्डा उतना ही प्रिय है जितना रसगुल्ला. इसमें जिन मुद्दे पर बहसें होती रही हैं उनकी सूची अंतहीन है. इनमें लेखकों से लेकर उनकी रचनाएं, कविता, सिनेमा, राजनीति, नौकरशाही और खेल तमाम विषय शामिल हैं.
अड्डा संस्कृति ने आपसी भाईचारे को बढ़ाया
समाज के एक बड़े तबके को आपसी भाईचारे के धागे में बांधे रखने में इस अड्डा या अनौपचारिक बैठकों की भूमिका बेहद अहम रही है. यह अकेली ऐसी चीज है जिसमें तमाम जाति, धर्म और समुदाय के लोग शामिल होते रहे हैं. बंगाल में पुनर्जागरण के दौरान भी इस अड्डा संस्कृति ने विचारों के प्रचार-प्रसार में काफी अहम भूमिका निभाई थी.
बंगाल को अड्डा संस्कृति का जन्मस्थान भले कहा जाता हो, इस परंपरा की जड़ें प्राचीन ग्रीस में सुकरात और प्लेटो के आपसी कथोप-कथन तक तलाशी जा सकती हैं. शुरुआत में अड्डा लेखकों और बुद्धिजीवियों का जमावड़ा होता था जहां देश-दुनिया के समकालीन लेखन और कृतियों पर विस्तार से चर्चा की जाती थी. यह बैठकें अमूमन कॉफी हाउस या ऐसी ही जगहों पर होती थीं.
कोलकाता का ऐतिहासिक कॉफी हाउस तो सत्यजित रे से लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस तक न जाने कितनी ही हस्तियों के अड्डों का गवाह रहा है. मोहल्ले की चाय दुकानों पर बिना दूध की चाय पीते हुए भी लोगों को अड्डा के दौरान तमाम मुद्दों पर बोलते देखना सामान्य है. बस इन बैठकों में शामिल किसी एक व्यक्ति के कोई मुद्दा छेड़ने भर की देरी होती है. उसके बाद तमाम लोग इसके पक्ष और विपक्ष में दलीलें देने लगते हैं.
सत्यजित रे समेत दूसरे फिल्मकारों के कॉफी हाउस के अड्डों के गवाह रहे पत्रकार तापस मुखर्जी बताते हैं, ‘इन बैठकों के दौरान हर मुद्दे पर गर्मागर्म बहसें होती थीं. लेकिन मजाल है कि कोई शालीनता की सीमा लांघ जाए. हर तबके के लोग समान विचारधारा वाले लोगों के साथ नियमित रूप से कॉफी हाउस में जुटते थे. यह सिलसिला देर रात को कॉफी हाउस के बंद होने तक जारी रहता था.’
लॉकडाउन के कारण ‘अड्डा’ नहीं कर पा रहे लोग
पश्चिम बंगाल में शायद ही ऐसा कोई बंगाली मिले जिसने कभी न कभी अड्डा नहीं मारा हो. बंगाल के तमाम प्रमुख लेखकों-साहित्यकारों के लिए ऐसी बैठकें काफी उर्वर साबित होती रही हैं. इन बैठकों से ही उनको अनगिनत प्लॉट तो मिले ही हैं, कई चरित्र भी इनमें शामिल लोगों के आधार पर ही गढ़े गए हैं. इनमें तीन लेखकों प्रोमानंद मित्र, आशुतोष मुखर्जी और नारायण गंगोपाध्याय की ओर से गढ़े गए क्रमशः घाना दा, पिंडी दा और टेनी दा जैसे लोकप्रिय चरित्र शामिल हैं.
बांग्ला साहित्य के अजेय कृतियों के कई प्लॉट कॉफी हाउस में होने वाली बैठकों से ही निकले हैं. ऐसे कई अड्डों का हिस्सा रहे इतिहासकार सुब्रत कुमार गांगुली कहते हैं, ‘अब लोग पहले की तरह खुल कर नहीं हंसते. हंसी में आने वाली यह कमी मौजूदा दौर और हमारी जीवनचर्या में बदलाव का एक अहम संकेत है.’
अब समय के साथ लोगों की व्यस्तता बढ़ने की वजह से भले ही अड्डों की तादाद या इनका समय कम हो गया हो, इसका मूल स्वरूप जस का तस है. लोग-बाग छुट्टी के दिन सुबह से ही अड्डा मारने में जुट जाते हैं. यह आम बंगाली की पहचान बन गया है. बीते तीन सप्ताह से जारी लॉकडाउन के दौरान यही आदत भारी तादाद में लोगों को घरों से निकलने पर मजबूर कर रही है. यही वजह है कि इस दौरान बंगाल में दो हजार से ज्यादा लोगों को लॉकडाउन के उल्लंघन या बेवजह चाय की दुकानों या बाजारों में जाने के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है. अकेले कोलकाता में ही यह तादाद एक हजार से ऊपर है.
एक समाजशास्त्री सुविमल सेन कहते हैं, ‘अड्डा आम बंगाली के खून में रचा-बसा है. यही उसे घरों से निकलने पर मजबूर कर देता है. लेकिन संकट के इस दौर में हमें खुद पर काबू रखना होगा. क्या इस लंबे लॉकडाउन से अड्डा संस्कृति खतरे में है? इस सवाल पर वह कहते हैं कि यह दौर तो देर-सबेर बीत ही जाएगा. इससे अड्डे मारने की प्रवृत्ति सामयिक तौर पर कम भले हो जाए, बाद में यह और मजबूत होकर उभरेगी.’
source : theprint