परसों सुबह ढलते ही रुस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूटिन ने यूक्रेन पर ‘रणनीतिक सैन्य आक्रमण’ बोल दिया है। अंतराष्ट्रीय क़ानून के परिप्रेक्ष्य में उनका यह निर्णय पूर्णतः ग़ैर-क़ानूनी और विधि-विपरीत है।
उनका तर्क कि यूक्रेन सोवीएट रूस का भौगोलिक और राजनीतिक रूप से हमेशा एक हिस्सा रहा है, ऐतिहासिक दृष्टि से सही नहीं है। यूक्रेन का अपना एक गौरवशाली और पृथक इतिहास रहा है हालाँकि इतना अवश्य है कि जब रूस के नेता बोरिस येल्ट्सिन ने उसे ‘विस्कूलि’ के आरामगाह (ड्राक्मा) में सोवीएट रूस ने उत्तराधिकारी-राष्ट्र के रूप में यूक्रेन को एक पृथक राष्ट्र का कामन्वेल्थ ओफ़ स्टेट्स (CSW) में दर्जा देने की पेशकश की थी, तब सोवीएट रूस के राष्ट्रपति मिखाईल गोर्बचेव ने मॉस्को के क्रेम्लिन से इसपर फ़ोन पर कड़ी आपत्ति दर्ज करी थी।
उनकी आपत्ति के दो प्रमुख कारण थे: पहला, उनके लिए रूस और यूक्रेन में कोई फ़र्क़ नहीं था (रूस के नोबेल विजेता ऐलेक्सैंडर सोलझेनित्स्यं की तरह, उनके पिता रूस और की माता यूक्रेन से थी); और दूसरा, यूक्रेन जैसे रूस और पश्चिमी यूरोप के बीच के ‘बफ़र राष्ट्र’ के बिना विंस्टन चर्चिल की तथाकथित ‘लोहे के परदे’ (iron curtain) का कोई औचित्य नहीं होता।
इस क्रांतिकारी बात को अपनी उत्तरदायी सोच के कारण बोरिस येल्ट्सिन भले ही नहीं भली-भाँति समझ पाएँ लेकिन सोवीएट रूस की ख़ुफ़िया एजेन्सी KGB के अनुयायी और उनके उत्तराधिकारी व्लादिमीर पूटिन ने इस लक्ष्मण-रेखा को अपने वैश्विक दृष्टिकोण का सबसे अहम मुद्दा तभी से बना लिया था।
गोर्बचेव की तरह यूक्रेन का यूरोप या नाटो में जाना उनकी दृष्टि से सदियों की व्यवस्था को ध्वस्त कर देगा भले ही यूक्रेन ने 1994 में अपने सभी परमाणु यंत्र खुद ही ध्वस्त करने की सहमति दे दी थी बशर्ते कि किसी भी परमाणु आक्रमण से नाटो और रूस उसकी संयुक्त रक्षा करने की गैरंटी लेने को प्रतिबद्ध रहें।
येल्ट्सिन के भले ही इस बात पर अपनी मंज़ूरी दे दी थी किंतु पूटिन ने सत्ता में आते ही स्पष्ट कर दिया की वे ऐसे किसी अनुबंध को सहमति नहीं देंगे- उनके लिए यूक्रेन रुस के सदैव अधीन था और आगे भी अधीन रहेगा। उनके नेतृत्व में 2014 में यूक्रेन के क़ब्ज़ा वाले क्रिमिया क्षेत्र में एक-तरफ़ा रूस का क़ब्ज़ा- और दुनिया का इसका चुप-चाप स्वीकार करना- इस संकल्प का पुख़्ता प्रमाण था।
यूक्रेन पर रूसी सेनानी का चौंकाने वाला आक्रमण इसी सदियों पुरानी सोच का सीधा नतीजा है।
पूटिन के अनुसार यूक्रेन रूस साम्राज्य का आंतरिक हिस्सा था और हमेशा रहेगा। उसको किसी भी क़ीमत पर वेस्टर्न (पश्चिमी)- NATO- की राजनीतिक और मिलिटेरी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनने का अधिकार नहीं दिया जा सकता, ख़ासकर जब यूक्रेन का राष्ट्रपति एक नौसिखिया हास्य-कलाकार है।
अगर वो ऐसा करने की चेष्टा रखता है, तो रूस को उसे बलपूर्वक रोकने का पूरा अधिकार प्राप्त है। यूक्रेन, यूरोप और अमरीका के नेता पूटिन के रूस के इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण को नहीं समझ सकें क्योंकि उनको भरोसा था कि उनकी आर्थिक-प्रतिबंध की नीति रूस को यूक्रेन के ख़िलाफ़ ऐसा कोई भी कदम उठाने से हतोत्साहित करेगी। यह उनकी सबसे बड़ी गलती है।
केवल आर्थिक-प्रतिबंधों से रूस को नहीं रोका जा सकता है। आर्थिक-प्रतिबंध आम जनता के जीवन को- महंगाई और आवश्यक वस्तुओं की कमी- से कष्टदायक बनाने का काम करती है। स्टालिन की तरह पूटिन केवल अपना ही सोचते हैं; उनको लाखों रूसियों के हालात से कोई वास्ता नहीं है। इस बात को अनदेखा करना पाश्चात्य देशों की सबसे बड़ी चूक सिद्ध हो सकती है। भारत की अपनी मजबूरियाँ हैं: भारत आज भी रूस पर अपनी 50% सैन्य सामग्रियों के लिए निर्भर है और इसलिए वो रूस पर किसी प्रकार का दबाव बनाने में असमर्थ है।
सैम्यूअल हंटिंगटन के ‘साम्राज्यों के टकराव’ (clash of civilisations) का भूत आज भी ज़िंदा हैं। उनको भुला देना हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। आज अगर इन प्राचीन सभ्यताओं के टकराव को हमें रोकना है तो सभी पाश्चात्य देशों को अपने तथाकथित नैतिक मौखिक समर्थन, औपचारिक किंतु अंततः अपंगू आर्थिक प्रतिबंधों की धमकियों और अंतराष्ट्रीय क़ानून के दंडों से कई कोसों ऊपर उठकर, पूटिन को अपनी संयुक्त सेनानी-पराक्रम की निरर्थकता का अहसास दिलाना होगा; इन सबसे कहीं महत्वपूर्ण, यूक्रेन के लाखों शरणार्थियों के लिए अपने बॉर्डर खोलने पड़ेंगे।
तभी यह संकेत न केवल पूटिन के रूस बल्कि क्षिंगपिंग के चीन को भी सचेत करेगी कि नियम-आधारित वैश्वकिक व्यवस्था ही भविष्यकाल में कारगार सिद्ध होगी न कि हंटिंगटन के काल्पनिक ‘साम्राज्यों के टकराव’।
क्योंकि हम किसी भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के हों किंतु अंततः हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सब बराबर के मानव हैं- जिन्हें समानता से जीने का अधिकार प्राप्त है।
- अमित जोगी
MA-PIS (मास्टर्ज़ इन इंटर्नैशनल स्टडीज़)
जवाहरलाल लाल नेहरू विश्वविद्यालय- नई दिल्ली