नई दिल्ली, 17 सितम्बर। भारत में चीतों का इंतजार खत्म हो चुका है। शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में नामीबिया से लाए गए चीतों को छोड़ा। दरअसल चीतों को भारत लाने के प्रोजेक्ट को प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे के कार्यकाल में मिली थी। इसके लिए 300 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। 18 चीतों को भारत लाने की औपचारिक मंजूरी मिल चुकी थी। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट के कारण मामला ठंडा पड़ गया। कोर्ट ने 2020 में यह रोक हटाई।
साल 1970 के बाद चीतों को देश में लाने की कोशिशें साल 2008- 2009 में हुई। उस दौरान भारत में यूपीए की सरकार थी और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे। मनमोहन सिंह की सरकार ने प्रोजेक्ट चीता को मंजूरी दी।
मंत्रालय ने वन्यजीव विशेषज्ञ एमके रंजीत सिंह, एक अमेरिकी आनुवंशिकी विज्ञानी स्टीफेन ओ ब्रायन और सीसीएफ के लारी मार्कर से विचार- विमर्श करने के बाद 2010 में नामीबिया से 18 चीतों को मंगाने का प्रस्ताव किया था। उसी साल तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश अफ्रीका के चीता आउट रीच सेंटर भी गए थे। चीतों को भारत लाने की पूरी तैयारी थी। साल 2010 और 2012 के बीच 10 स्थलों का सर्वेक्षण किया गया था।
मध्य प्रदेश में कूनो राष्ट्रीय उद्यान नए चीतों को लाकर रखने लिए तैयार माना गया, क्योंकि इस संरक्षित क्षेत्र में एशियाई शेरों को लाने के लिए भी काफी काम किया गया था। पर्यावरण और वन मंत्रालय ने 300 करोड़ रुपए खर्च कर चीतों को बसाने की योजना को औपचारिक रूप दे दिया था, लेकिन साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी और करीब 7 साल बाद साल 2020 में कोर्ट ने इस रोक को हटाया।
भारत में चीतों को लाने और गिरती संख्या का इतिहास
कहा जाता है कि 20 वीं शताब्दी की शुरुआत तक भारतीय चीतों की आबादी गिरकर सैंकड़ों में रह गई और राजकुमारों ने अफ्रीकी जानवरों को आयात करना शुरू कर दिया। 1918 से 1945 के बीच लगभग 200 चीते आयात किए गए थे। अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद भारतीय चीतों की संख्या कम होने के साथ- साथ इन्हें किए जाने वाले शिकार का चलन भी लगभग खत्म हो गया। पंडित नेहरू की सरकार ने चीतों को सुरक्षा देने की प्राथमिकता दी साल 1952 में स्वतंत्र भारत में वन्यजीव बोर्ड की पहली बैठक में जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने मध्य भारत में चीतों की सुरक्षा को विशेष प्राथमिकता देने का आह्वान करते हुए इनके संरक्षण के लिए साहसिक प्रयोगों का सुझाव दिया था। इसके बाद, साल 1970 के दशक में जब देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी उस दौरान एशियाई शेरों के बदले में एशियाई चीतों को भारत लाने के लिए ईरान के शाह के साथ बातचीत शुरू की हई। ईरान में एशियाई चीतों की कम आबादी और अफ्रीकी चीतों के साथ इनकी अनुवांशिक समानता को ध्यान में रखते हुए भारत में अफ्रीकी चीते लाने का फैसला किया गया।
बादशाह अकबर के पास थे 1000 चीते
बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) के पूर्व उपाध्यक्ष दिव्य भानु सिंह की किताब ’द एंड ऑफ ए ट्रेल- द चीता इन इंडिया’ की मानें तो साल 1556 से 1605 तक शासन करने वाले मुगल बादशाह अकबर के पास करीब 1,000 चीते थे। अकबर इन चीतों का इस्तेमाल काले हिरण और चिकारे के शिकार के लिए किया करता था। पुस्तक में बताया गया है कि अकबर के बेटे जहांगीर ने पाला के परगना में चीते के जरिये 400 से अधिक मृग पकड़े थे। शिकार के लिए चीतों को पकड़ने और कैद में रखने के कारण प्रजनन में आने वाली दिक्कतों के चलते इनकी आबादी में गिरावट आई। किताब में ये भी कहा गया है कि भारत में चीतों को पकड़ने में अंग्रेजों की बहुत कम दिलचस्पी थी, हालांकि वे कभी- कभी ऐसा किया करते थे।
छत्तीसगढ़ में हुआ था आखिरी चीतों का शिकार
भारतीय वन सेवा में कार्यरत प्रवीण कासवान ने ट्विटर पर एक थ्रेड शेयर किया है। जिसमें जानकारी दी गई है कि भारत के आखिरी चीतों का कहां और किसने शिकार किया था? प्रवीण कासवान के अनुसार, 1947 में आखिरी 3 चीतों का शिकार अविभाजित छत्तीसगढ़ में किया गया था। सरगुजा में कोरिया के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने इन चीतों का शिकार किया था। जर्नल ऑफ द बॉम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी में इस शिकार के दस्तावेज मौजूद हैं। प्रवीण कासवान के अनुसार, भारत में चीतों का ये आखिरी दस्तावेज था, वो भी मरे हुए चीतों का। ये तस्वीर महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव के निजी सचिव ने ही दस्तावेज के तौर पर जर्नल ऑफ द बॉम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी को दी थी। इन आखिरी चीतों के शिकार के बाद 1952 में इसे विलुप्त घोषित कर दिया गया था।
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