- कृष्ण कांत
मेरी नजर में यह खुशी का नहीं, राष्ट्रीय शर्म का दिन है. अगर इस पूरे प्रकरण में संसदीय प्रक्रिया अपनाई गई होती तो न किसानों को इतनी तकलीफ उठानी पड़ती, न ही प्रधानमंत्री को क्षमा मांगनी पड़ती.
इस कानून को अध्यादेश के जरिये चोर दरवाजे से लागू किया गया. किसानों के लाख विरोध के बावजूद संसद में इसे दबंगई से पारित कराया गया था. कानून रद्द करने के सवाल पर कहा गया कि जो कानून संसद ने पारित किया, उसे सरकार रद्द कैसे कर सकती है? बार बार संसद और लोकतंत्र का हवाला दिया गया. लेकिन अचानक एक शख्स टीवी पर आकर कह देता है कि हम कानून रद्द कर रहे हैं.
डेढ़ लोगों की सरकार के आगे पूरा देश बेबस है. जब मन हुआ तो तुगलकी फरमान जारी हो गया, जब मन हुआ तो फरमान वापस हो गया. आज जब आप खुशी मना रहे हैं तब भी तानाशाही ही कायम है. यह फैसला भी एक आदमी का है.
मंत्री, सांसद, संसद समेत पूरी व्यवस्था डेढ़ लोगों के कब्जे में है. वे पूरे तंत्र को, हर संस्था को अपने रबर स्टांप की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं.
जब यह कानून आया तो कई पत्रकारों ने इसकी समीक्षा की कि ये कॉरपोरेट परस्त कानून है. कई विशेषज्ञों ने कहा कि यह किसानों के विरोध में है. समूचे विपक्ष ने विरोध किया कि ये तीनों कानून असंवैधानिक हैं. पंजाब के किसान लॉकडाउन में ही प्रदर्शन पर उतर आए थे. लेकिन तानाशाह ने किसी को भी सुनने से इनकार कर दिया.
वह दिन भी शर्म का दिन था जब संसद में गुंडई करके असंवैधानिक फैसला लिया गया. आज भी शर्म का दिन है जब एक तानाशाह ने खुद को विनम्र दिखाने के लिए चुनावी माफी मांगी.
जो नेता, पत्रकार और पार्टी के पालतू लोग किसानों के बारे में साल भर से अनाप शनाप बकते रहे हैं, उन्हें शर्म से मर जाना चाहिए. बाकी किसानों के साथ ऐतिहासिक रूप से क्रूरता, बर्बरता और अभद्रता का हिसाब होना अब भी बाकी है.
(कृष्ण कांत की फेसबुक वाल से)