बोनस तय करने के लिए कोलकाता या दिल्ली में बैठक होती रही है। अपवाद स्वरूप साल 2011 में नागपुर में बैठक हुई। प्रबंधन 17 हजार से आगे नहीं बढ़ रहा था, और यूनियन 21 हजार से कम पर तैयार नहीं।बैठक बेनतीजा समाप्त हुई। पर प्रबंधन ने कामगारों के खाते में 17 हजार रुपया डाल दिया। इसके पीछे प्रबंधन के सिपाहसालारों की सोच थी कि खाते में 17 हजार जाने के बाद मामला ठंडा हो जाएगा।
प्रबंधन के इस रवैये को यूनियन नेताओं ने ,एकता तोड़ने वाले कदम के रूप में लिया और 4 हजार दीवाली बोनस की मांग को लेकर 10 अक्टूबर 2011 को हड़ताल का एलान कर दिया। प्रबंधन ने हड़ताल के एलान को गम्भीरता से नहीं लिया। सोच यह थी 17 हजार मिलने के बाद कामगार हड़ताल पर नहीं जाएंगे। कुछ दिन बाद हड़ताल की जमीनी तैयारी की सूचना से प्रबंधन के हाथ -पांव फूलने शुरू हुए। यूनियन नेताओं से मनुहार करना शुरू किया। पर नेताओं ने एक लाइन में सीधी बात कही – 4 हजार दीवाली बोनस दो। प्रबंधन 4 हजार तो नहीं पर कुछ देने को तैयार हुआ। लेकिन यूनियन नेता 4 हजार पर अड़े रहे। हड़ताल हुई। ऐतिहासिक हड़ताल हुई।
यूनियन ने घोषणा किया कि अगर 4 हजार दीवाली बोनस नहीं मिला तो अब तीन दिवसीय हड़ताल होगी। मरता क्या न करता। प्रबंधन ने सभी कोल कामगारों के खाते में 4 हजार रुपया डाले।अब दूसरी बार 9 सालों बाद एक बार फिर कोलकता – दिल्ली के बजाए झारखंड की राजधानी रांची में 15 अक्टूबर को बोनस पर बैठक होनी है। ऐसे में चर्चा का विषय यह है कि रू- क्या एक राय से बोनस भुगतान पर सहमति बन जाएगी ? या फिर नागपुर की तरह रांची भी इतिहास बनाएगा? या कुछ नया होगा ?
बहरहाल उपरोक्त सवालों के जवाब के लिए 15 अक्टूबर तक इंतजार करने के अलावे कोई विकल्प भी तो नहीं है। तो करते हैं इंतजार! क्यों ?
(सत्येन्द्र कुमार की फेसबुक वाॅल से)