विकासशील देशों में कोविड 19 की आड़ में फेक न्यूज से सम्बंधित कानून, राजनैतिक दबाव और आर्थिक परेशानियों के कारण अधिकतर स्वतंत्र मीडिया स्त्रोत, विशेषकर प्रिंट मीडिया, अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। विकासशील देशों में स्वतंत्र मीडिया के लिए कोविड 19 से पहले भी अस्तित्व का संकट था, पर अब तो यह विलुप्तीकरण की तरफ जा रहा है। भारत समेत अधिकतर विकासशील देशों में सत्तावादी और दक्षिणपंथी सरकारें स्वतंत्र मीडिया को पनपने नहीं देना चाहतीं, तरह तरह के अंकुश लगाती हैं और बाधाएं खड़ा करती हैं, और इन सबसे जूझते मीडिया को कोविड 19 ने बहुत नुकसान पहुंचाया है। लॉकडाउन और कर्फ्यू के कारण अखबारों का प्रसार गिर गया है और विज्ञापनों की कमी हो गई है।

संपादकों और प्रेस की स्वतंत्रता से सम्बंधित संस्थानों के अनुसार कोविड 19 की आड़ में अनेक देशों में पत्रकार परेशान किये गए, जेल भेजे गए या फिर समाचारों को प्रतिबंधित किया गया। दुनिया भर में स्वतंत्र पत्रकारिता को समर्पित संस्थान, रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स, ने कोरोनावायरस और पत्रकारिता विषय पर एक समर्पित ट्रैकर बनाया है, इसके अनुसार भारत, ब्राजील, ईरान और मिस्र समेत लगभग दर्जन भर देशों में इस अवधि के दौरान पत्रकारों को परेशान किया गया है या फिर जेल की सलाखों के पीछे बंद किया गया है। हाल में ही प्रकाशित अपनी वार्षिक रिपोर्ट में इस संस्थान ने कोविड 19 के दौर में पत्रकारों की परेशानियों का विस्तार से जिक्र किया है।

साउथ अफ्रीका में स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए एक चर्चित नाम मेल एंड गार्डियन अखबार है। इसके सम्पादक खदीजा पटेल के अनुसार स्वतंत्र रिपोर्टिंग वाले समाचार पत्र हमेशा ही आर्थिक परेशानियों में रहते हैं क्योंकि इन्हें कम विज्ञापन मिलते हैं, और सरकारी विज्ञापन तो बिलकुल ही नहीं मिलते और इसके पत्रकारों को हमेशा ही खतरों का सामना करना पड़ता है। कोविड 19 के बाद से हालात तेजी से खराब होते जा रहे हैं। यदि कोविड 19 खत्म भी हो जाए तब भी प्रिंट मीडिया की हालत सुधरने में समय लगेगा. जब तक लोग इसे जनता की संपत्ति नहीं समझेंगे तब तक स्वतंत्र मीडिया को बचाना कठिन होगा। या तो ये समाचार पत्र बंद हो जायेंगें या फिर किसी अरबपति के हाथ की कठपुतली बन जायेंगे। यह देखना सबसे दुखद होगा कि महामारी के बाद सभी अखबारों के मालिक चन्द अरबपति रह गए हैं।

भारत में कारवां के एग्जीक्यूटिव एडिटर विनोद जोस के अनुसार कोविड 19 काल में मेनस्ट्रीम मीडिया ने लगभग नगण्य क्रिटिकल रिपोर्टिंग की है और इसका सबसे बड़ा कारण 20 प्रमुख मीडिया घरानों के साथ मार्च में प्रधानमंत्री की बैठक है। अधिकतर अखबारों में वही आया जो सरकार चाहती थी। दरअसल मीडिया की आर्थिक और राजनैतिक स्वतंत्रता एक दूसरे से जुडी है। यदि आप आर्थिक तौर पर स्वतंत्र हैं, यानि सरकारी विज्ञापनों के मोहताज नहीं हैं और टैक्स में छूट का लालच नहीं है तभी स्वतंत्र पत्रकारिता को जिन्दा रख सकते हैं, पर यह काम कठिन है। आगे और भी समस्याएं आएगीं क्योंकि देश की सत्तावादी और दक्षिणपंथी सरकार पत्रकारिता को जिंदा रखना ही नहीं चाहती। दूसरी तरफ मीडिया में यह साहस भी नहीं है कि सरकार के विरुद्ध सच को उजागर करे।

भारत समेत अधिकतर देशों में लॉकडाउन के कारण अखबारों का प्रसार रुक गया है या कम हो गया है, पर इनकी वेबसाइट पर दर्शकों की संख्या बढ़ती जा रही है। मीडिया घरानों के आय का मुख्य स्त्रोत प्रिंट मीडिया है, जो अब खतरे में है। रायटर्स इंस्टिट्यूट ऑफ जर्नलिज्म द्वारा पिछले वर्ष प्रकाशित एक रिपोर्ट में भी मीडिया पर इन खतरों की चेतावनी दी गई थी। मानवाधिकार संस्था, लुमिनेट, ने कोविड 19 को स्वतंत्र मीडिया के लिए विलुप्तिकरण का काल बताया है। इसने सुझाव भी दिया है कि यदि दुनिया में स्वतंत्र पत्रकारिता को बचाना है तो एक वैश्विक फण्ड की स्थापना आवश्यक है, जो जरूरत के दौर में स्वतंत्र मीडिया की मदद करे।

 

 

source : navjiavn

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