बिहार में वोटों की गिनती कल (मंगलवार, 10 नवंबर, 2020 को) होगी। और अगर नतीजे वैसे ही सामने आए जैसे कि सभी एग्जिट पोल में दिखाए गए हैं, तो नीतीश कुमार का राजनीतिक अस्तित्व भले ही बच जाए लेकिन उनकी 17 साल पुरानी पार्टी जेडीयू का अंत निश्चित हो जाएगा।
भले ही जेडीयू के 15 लोकसभा और 5 राज्यसभा सांसद हैं, लेकिन उसका दायरा मोटे तौर पर बिहार ही में रहा है। और इस हार के बाद पार्टी को एक विश्वसनीय और भरोसमंद दूसरी पंक्ति के नेता और पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए कार्यकर्ताओं का जरूरत होगी। जेडीयू की दिक्कत यह भी है कि इसके विस्तार में इसकी उलझी हुई राजनीतिक विचारधारा भी आड़े आती है जो आजतक सही से परिभाषित ही नहीं हुई है।
नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडिस जैसे दिग्गज नेताओं के साथ मिलकर समता पार्टी बनाई थी, लेकिन 2003 में वे जॉर्ज से अलग हो गए और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) का गठन किया। महज दो साल के अंदर ही पार्टी बिहार की सत्ता पर काबिज हो गई, और बिहार में इससे पहले के 15 साल से चला आ रहा लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी की अगुवाई वाले आरजेडी का शासन समाप्त हो गया।
हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार में तीसरे दौर की वोटिंग से पहले 7 नवबंर को बिहार के लोगों के नाम एक खुला पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने बिहार के विकास के लिए नीतीश कुमार को जिताने का आग्रह किया था, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक नीतीश के राजनीतिक पतन को दरअसल प्रधानमंत्री मोदी का ही राजनीतिक बदला मानते हैं।
किसी को नहीं पता है, और शायद ही कभी पता लग सके कि स्वर्गीय राम विलास पासवान ने अपने बेटे चिराग पासवान की अगुवाई वाली अपनी पार्टी एलजेपी को नीतीश के खिलाफ एक अनियंत्रित राजनीतिक मिसाइल के तौर पर इस्तेमाल करने की हरी झंडी दी थी या नहीं। वैसे भी तेजस्वी यादव ने बिहार में जो सियासी तूफान खड़ा किया, उसमें एलजेपी ने अपने स्तर पर तड़का लगाकर नीतीश के पतन को सुनिश्चित कर दिया। एलजेपी ने जेडीयू के खिलाफ तो उम्मीदवार उतारे लेकिन बीजेपी से कोई बैर नहीं लिया और ऐलान कर दिया कि बिहार में एलजेपी-बीजेपी की सरकार बनेगी और नीतीश कुमार जेल में होंगे। पासवान जूनियर ने खुलेआम जेडीयू के राजनीतिक अवसान का ऐलान किया, लेकिन प्रधानमंत्री और बीजेपी के नेता बहुत ही रहस्यमयी तरीके से इस मामले में चुप्पी साधे रहे।
और प्रधानमंत्री द्वारा चिराग पासवान के इस रवैये और घोषणा पर प्रधानमंत्री की चुप्पी को राजनीतिक हल्कों में खूब नोटिस किया गया। ऐसा लगा कि चिराग पासवान को उनका आशीर्वाद मिला हुआ है, क्योंकि चिराग ने तो खुद को पीएम मोदी का हनुमान घोषित कर दिया था।
ऐसे में जब प्रधानमंत्री ने नीतीश कुमार की तारीफ की और उन्हें जिताने की अपील की तो किसी ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। और संभवत: यही कारण रहा कि बिहार में किसी को उस चर्चा पर भी यकीन नहीं हुआ कि अगर नीतीश कुमार बिहार में सत्ता हासिल करने में नाकाम रहते हैं तो उन्हें मोदी के मंत्रिमंडल में जगह मिल जाएगी।
फिर भी अगर नीतीश कुमार किसी तरह केंद्रीय मंत्री बन भी जाते हैं तो इसका अर्थ होगा कि मोदी को बिहार से बीजेपी के एक मंत्री को मंत्रिमंडल से हटाना होगा, ऐसे में जेडीयू के लिए मुख्यधारा में वापसी करना और मुश्किल होगा। जेडीयू अपने अस्तित्व में आने के कुल 17 में से 15 साल तो सत्ता में रही है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि बिना सत्ता के क्या यह खुद को बचा पाएगी।
दरअसल जेडीयू में कोई भी बड़े जनाधार वाला नेता नहीं है। खुद नीतीश भी एक तरह से रणनीतिकार ज्यादा और नेता कम रहे हैं। उन्होंने पूर्व नौकरशाह आर सी पी सिंह और एन के सिन्हा, पूर्व राजनयिक पवन वर्मा और पूर्व पत्रकार हरिवंश जैसों को पार्टी में शामिल किया और पुराने दोस्त लल्लन सिंह के हाथों में पार्टी चलाने की जिम्मेदारी सौंप दी। लेकिन वे किसी भी जमीनी नेता को पार्टी में प्रोत्साहित करने में नाकाम रहे।
असल में बीजेपी और आरजेडी दोनों को ही बिहार की राजनीति में बने रहने के लिए एक दूसरे का साथ चाहिए। बिहार की उच्च जातियां बीजेपी के आसपास रहती है क्योंकि उन्हें लगता है कि बीजेपी आरजेडी को टक्कर दे सकती है, वहीं अल्पसंख्यकों का आरजेडी को समर्थन इस विश्वास पर है कि यही पार्टी बीजेपी से मुकाबला कर सकती है। ऐसे में नीतीश कुमार और जेडीयू की जरूरत ही किसे है।
वैसे चर्चा है कि चुनावी नतीजे आने से पहले ही जेडीयू में बलि के बकरे की तलाश शुरु हो गई है ताकि हार की जिम्मेदारी उस पर डाली जा सके। इस कड़ी में नीतीश के नजदीकी आर सी पी सिंह, चंचल कुमार, लल्लन सिंह, संजय झा और अशोक चौधरी के नाम सामने आ रहे हैं। इसके अलावा भी कई नेता हैं जिनके राजनीतिक भविष्य का फैसला चुनावी नतीजे करने वाले हैं।
लेकिन तेजस्वी यादव और चिराग पासवान जैसे नेताओं के पास उम्र का बहुत बड़ा एडवांटेज है, ऐसे में एनडीए की हार जीतन राम मांझी, मुकेश सहनी, उपेंद्र कुशवाहा, पप्पू यादव और बिहार की राजनीति में जबरदस्ती टांग अड़ाने वाले असदुद्दीन ओवैसी की भविष्य भी अंधकारपूर्ण ही नजर आ रहा है।