यह सर्वज्ञात है कि आदिवासी समुदाय का जीवन यापन वन पर निर्भर होता है और उनके पूरे जीवनकाल में वन सरंक्षण को लेकर कई परंपराएं देखने को मिलती है। बड़े वनों की कटाई के विपरीत आदिवासी समुदाय के द्वारा वनों का उपयोग बहुत अलग ही प्रकार से उनके जुड़ाव को दर्शाता है। उनके इस जुड़ाव में वन के ज्ञान से लेकर सामाजिक व्यवस्था की भी महत्वपूर्ण भूमिका हैं। इसे गहराई से समझते हुए “सामुदायिक वन प्रबंधन (Community Forest Right)” और “व्यक्तिगत वन प्रबंधन” का अधिकार दिए जाने का कानून बनाया गया। जिसके क्रियान्वयन में अभी भी बहुत चुनौतियां है।
CFR के चरणबद्ध प्रक्रिया में वनों का चिन्हांकन, भूमि का हस्तांतरण, प्रबंधन से लेकर पूर्णतः वन विभाग से उस क्षेत्र विशेष का अलग होना है। छत्तीसगढ़ CFR के मामले में अभी पहले ही चरण को ठीक से आगे नहीं बढ़ा पाया है। अभी इसके लिए क्षेत्र चिन्हांकन ही चल रहे हैं। प्रबंधन तो बाद एक सपना सा है। इसमें वन विभाग ही सबसे बड़ा बाधक है।
ऐसे में आदिवासी अधिकार से सबंधित कानून के क्रियान्वयन के लिए वन विभाग कैसे नोडल हो सकता है? इस तरह के फैसले लिए किस आधार पर जाते है? ऐसे सलाह देने वालों का क्या hidden agenda समझना कठिन होता है? क्या वन विभाग आदिवासी के जंगल के जुड़ाव, उसके जन्म से मृत्यु तक में जंगल की भूमिका, उसके पूजा के पेड़ों को जानता पहचानता है? क्या उसका काम इन आदिवासियों के जीवन और उसके अधिकारों को समझने का रहा है? क्या उनके प्रशिक्षणों में कहीं उनकी भूमिका दिखती है? सरंक्षण के नाम पर क्षेत्रों से आदिवासियों को बाहर कर पुनर्वास देने के तरीके में कहीं उनकी संवेदना दिखाई देती है? कुछ अधिकारियों के व्यक्तिगत क्षमता को छोड़ दिया जाए तो वन विभाग अधिकांशतः आदिवासी से जंगल बचाता दिखाई देता है।
ऐसे में वो नोडल के रूप में उस आदिवासी समाज के पीढ़ियों से आत्मा तक समाए हुए वनों को कैसे समझ पाएगा? कभी बस्तर के एक आदिवासी भाई ने कहा था कि जब हम जंगल में भटक जाते हैं तो आंखें बंद करके दिशा समझते हैं। हमें हमारी भीतर की पारंपरिक ज्ञान ही दिशा तय कर देती है याने जंगल से वो बातें करके पूछ लेते हैं। इतने गहरे जुड़ाव को समझने के लिए तकनीकी या जैव वैज्ञानिक ज्ञान नहीं वरन् मानवता और सामाजिक समझ की आवश्यकता है।
उम्मीद है इसपर पुनर्विचार किया जाएगा या करने के लिए सभी की ओर से ईमानदार प्रयास किया जाएगा।
- मनजीत कौर बल