झारखंड हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए कहा है कि समान काम के बदले समान वेतन मौलिक अधिकार तो नहीं है, पर राज्य के नीति निर्देशक तत्व को देखने से मौलिक अधिकार के समान ही प्रतीत होता है। इस कारण समान काम के बदले समान वेतन की मांग को गैरजरूरी नहीं माना जा सकता। डॉ जस्टिस एसएन पाठक की अदालत ने इस टिप्पणी के साथ ही एफसीआई के एक कैजुअल टाइपिस्ट की सेवा नियमित करते हुए उसे सभी बकाया वेतन और सुविधाएं देने के श्रम न्यायालय के आदेश को सही ठहराते हुए याचिका निष्पादित कर दी।
अदालत ने अपने आदेश में कहा है कि इस मामले में वर्ष 1982 से कार्यरत एफसीआई कर्मी अनिल कुमार को समान कार्य के बदले समान वेतन दिया जाना बिलकुल सही है, क्योंकि कॉरपोरेशन में टाइपिस्ट का पद भी था और 1982 के बाद नियमित बहाली भी की गई, पर अनिल कुमार को कैजुअल ही रखा गया। इसमें उनकी कोई गलती नहीं है। ऐसे में उन्हें भी अन्य टाइपिस्ट की तरह समान वेतन दिया जाना बिलकुल न्यायोचित है और उन्हें इस लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता।
श्रम न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा
अदालत ने अपने फैसले में यह भी कहा कि श्रम न्यायालय का आदेश दस्तावेजों पर आधारित है और जब तक दस्तावेजों में कोई बड़ी त्रुटि न दिखाई दे या श्रम न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर कोई फैसला न दे तब तक फैसलों में हाईकोर्ट का हस्तक्षेप करना उचित नहीं होता। इस मामले में भी श्रम न्यायालय ने सभी संबंधित दस्तावेजों और नियमों देखने के बाद यह फैसला दिया है। अब इसमें किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। अतः फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया की याचिका खारिज की जाती है और श्रम न्यायालय का आदेश बरकरार रखा जाता है ।
क्या है मामला
फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया में कार्यरत अनिल कुमार ने श्रम न्यायालय में याचिका दायर की थी। इसमें कहा गया था कि वह वर्ष 1982 से कैजुअल वर्कर के रूप में कार्यरत थे। उनको कभी भी नियुक्ति पत्र नहीं दिया गया था। वह हिंदी टाइपिस्ट के रूप में कॉरपोरेशन में काम कर रहे थे । वर्ष 1984 में उनकी सेवा समाप्त कर दी गई। इसके खिलाफ वे श्रम न्यायालय में गए। वर्ष 1990 में श्रम न्यायालय ने उनकी सेवा बहाल करने का आदेश दिया। इसके बाद उन्हें कैजुअल कर्मचारी के रूप में ही रख लिया गया।
नियुक्ति प्रक्रिया को चुनौती दी
वर्ष 1995 में एफसीआई ने नियुक्ति प्रक्रिया शुरू की। इसके लिए आंतरिक कर्मियों से भी आवेदन मांगा गया था, लेकिन अनिल कुमार इस नियुक्ति प्रक्रिया के खिलाफ श्रम न्यायालय गए। उन्होंने कहा कि लंबे समय से टाइपिस्ट के पद पर काम कर रहे हैं। जब पद रिक्त हैं तो उनकी सेवा नियमित की जानी चाहिए। इस मामले पर सुनवाई के बाद श्रम न्यायालय ने प्रार्थी की सेवा नियमित करने और स्थायी कर्मचारी के समान वेतन और अन्य सुविधाएं देने का निर्देश दिया।
एफसीआई ने श्रम न्यायालय के आदेश को चुनौती दी थी
श्रम न्यायलय के इस आदेश के खिलाफ एफसीआई ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की। हाईकोर्ट में लंबी सुनवाई के बाद अदालत ने प्रार्थी के पक्ष में फैसला सुनाया और श्रम न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा। टाइपिस्ट को वर्ष 1991 से ही नियमित मानते हुए वेतन और अन्य सुविधाएं देने का आदेश दिया।
मामला लंबित रहते के दौरान ही वर्ष 2018 में रिटायर हो गए
टाइपिस्ट अनिल कुमार हाईकोर्ट में मामला लंबित रहते के दौरान ही वर्ष 2018 में रिटायर कर गए। कोर्ट के निर्देश के बाद अब उन्हें वर्ष 1991 से ही नियमित टाइपिस्ट के समान वेतन और अन्य सुविधाओं का लाभ मिलेगा।
अन्य मामलों में भी मिल सकता है लाभ
हाईकोर्ट के इस आदेश का अन्य मामलों में भी लाभ मिल सकता है। विधि विशेषज्ञों के अनुसार इस आदेश में इस तरह के सभी मामलों पर लागू होने की बात तो नहीं कही गई है, लेकिन अदालतों में समान काम के लिए समान वेतन के लिए लंबित या भविष्य में दायर होने वाले मामलों में इस आदेश का हवाला देकर लाभ लिया जा सकता है। सरकार के कई विभागों के दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों की सेवा नियमित करने और समान काम का समान वेतन देने की मांग को लेकर याचिका लंबित है। कई राज्यों की हाईकोर्ट ने भी समान काम के समान वेतन को जरूरी बताया है। ऐसे में हाईकोर्ट का यह आदेश काफी महत्वपूर्ण है।